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________________ श्री उपदेश माला गाथा ५०-५१ वैयावृत्य तप का फल-सुखसामग्री की प्राप्ति चाहते। वे तो सिर्फ अपने चारित्र धर्म को सुरक्षित रखने की इच्छा करते हैं"।।४९।। चूंकि परिग्रह सभी अनर्थों का मूल है। इसी बात को आगे की गाथा में बताते हैं छेओ भेओ वसणं, आयास-किलेस-भय-विवागो य । ___ मरणं धम्मभंसो, अरई अत्था उ सव्वाइं ॥५०॥ शब्दार्थ - छेदन, भेदन, व्यसन (विपत्ति), आयास, क्लेश, भय, विवाद, मृत्यु, धर्मभ्रष्टता और अरति (जीवन से ऊब जाना) ये सब अनर्थ अर्थ (धन) से होते हैं ।।५।। भावार्थ - ‘धनप्राप्ति के लिए मनुष्य अपने कान, नाक आदि अंगों को काट या कटवा लेता है, तलवार आदि शस्त्रों से टुकड़े कर देता है अथवा स्वजन-सम्बंधियों में आपस में फूट डालता है, अनेक प्रकार की मुसीबतें सहता है, काफी मेहनत करता है, मन में भी क्लेश करता है, डरता भी है, धन के कारण परस्पर कलह से विवाद भी होता है अथवा मुकद्दमेबाजी भी होती है; धन के कारण किसी समय मृत्यु की सजा भी मिल जाती है। धनलोभी मनुष्य चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है, अथवा अर्थ प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अनेक बुराइयों में फंसकर अपने आचरण से गिर जाता है, चित्त में व्याकुलता या जिंदगी से ग्लानि भी पैदा हो जाती है। यह सब अनर्थ धन के निमित्त से होते हैं। इसीलिए धन की आसक्ति का सर्वथा त्याग करना चाहिए ॥५०॥ दोससयमूलजालं, पुवरिसिविवज्जियं जई यंतं । अत्थं वहसि अणत्थं, कीस अणत्थं तवं चरसि? ॥५१॥ शब्दार्थ - सैकड़ों दोषों का मूल कारण होने से मूर्छाजाल (धनादि के प्रति आसक्तिजाल) रखना पूर्वऋषियों द्वारा वर्जित है। यदि साधु होकर भी वमन किये हुए (स्वयं द्वारा त्यागे हुए) अनर्थकारी धन को रखता है तो फिर वह व्यर्थ ही तपश्चरण क्यों करता है? ।।५।। भावार्थ - सैकड़ों दोषों-अनर्थों-की जड़ समझकर ही जम्बूस्वामी, वज्रस्वामी आदि पूर्व-मुनिवरों ने दीक्षा के समय में ही धन का त्याग कर दिया था। हे मुने! यदि तूं पहले त्याग किये हुए अनर्थकर धन का मूर्छा से पुनः संग्रह करता है तो फिर व्यर्थ ही तप क्यों करता है? विवेकशून्य कार्य करने से तो शरीर को ही वृथा कष्ट होता है। साधु के लिए धन का संचय अनेक दूषणों को पैदा करने वाला है। इससे साधु शीघ्र ही संयम से भ्रष्ट हो जाता है। धनसंचय का परिणाम नरकगति की प्राप्ति आदि महान् अनर्थकर है। इसीलिए विवेकी साधुजन वर्तमान 135
SR No.002364
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages444
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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