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यथायोग्य अन्य साधुओं को भी वंदना करें
ततः शिष्यो गुरु त्रिप्रदक्षिणीकृत्य वन्दते यथार्हमन्यसाधूनपि । विधिमार्गप्रपादि ग्रन्थों में दिग्बंध से पूर्व ही वंदना करने का विधान है परन्तु गुरू महाराज की तीन प्रदक्षिणा देने का विधान नहीं है।
नामकरण के समय साधु साध्वी शिष्य पर वासक्षेप डालते हैं जबकि श्रावक श्राविका अक्षतों से बधाते हैं परन्तु आचार दिनकर में लिखा है कि साधु ही वासक्षेप डालने का अधिकारी है। साध्वीजी म. श्रावक एवं श्राविकाएं अभिमंत्रित अक्षत डालें
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ततो गुरूः साधूनां करे अभिमन्त्रितवासान् ददाति साध्वी श्रावकश्राविकाणां करेऽभिमन्त्रिताक्षतांश्च ।
विधिमार्गप्रपा में यह वर्णन अस्पष्ट है
संघो य तस्स सिरे वासअक्खयनिक्खेवं करे ।
अर्थात् संघ उसके सिर पर वास एवं अक्षत का निक्षेप करें। यहाँ संघ से तात्पर्य साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका है। इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि कौन वासक्षेप करें और कौन अक्षतक्षेप करें।
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विधि मार्गप्रपा के पवज्जाविही नामक सोलहवें प्रकरण में दीक्षाविधि की पूर्णता के पश्चात् जो धर्मोपदेश दिया जाता है, उस संदर्भ में चत्तारि परमंगाणि. यह गाथा देकर उत्तराध्ययन सूत्र का तीसरा चाउरंगिज्जं, अथवा पवज्जा विहाणं अथवा जयं चरे जयं चिट्ठे का उपदेश दिये जाने का उल्लेख किया है।
इच्चाइ उत्तरज्झयणाणं तइयज्झयणं चाउरंगिज्जं वक्खाणइ । पवज्जाविहाणं वा । जयं चरे जयं चिट्ठे इच्चाइयं वा ।
समाचारी शतक में महोपाध्याय श्री समयसुंदरजी महाराज ने भी इसे पुष्ट किया है। जबकि आचार दिनकर के अनुसार दशवैकालिक सूत्र का तीसरा क्षुल्लकाचार अध्ययन अवश्यमेव सुनाने का आग्रह किया है।
अत्र च नियमा दशवैकालिकक्षुल्लकाचारकथाध्ययनयुक्त्या सामायिकसाधूनामाचारः
क्षुल्लकानामप्ययमेवाचार:
क्षुल्लकाचार
कथाध्ययनं यथा - संजमे.... ।
वर्तमान परम्परा में ऐसा उपदेश अनिवार्य नहीं है। समयोचित उपदेश दिया भी जाता है, समयाभाव हो तो नहीं भी दिया जाता है। प्रायः तो नहीं ही दिया
10 / योग विधि