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के पाठ के उच्चारपूर्वक भरने का विधान प्रचलित है। उसे भरते समय विशेष समृद्ध करने के लिए हरी घास में से पसार करना चाहिये। इस अभिषेक जल के छिड़काव से सभी प्रकार के उपद्रव नष्ट होते हैं।
वीर संवत् 1956 की बात है, समग्र भाव नगर शहर में कोलेरा रोग फैला हुआ था। सभी नगर जनों की आशा जैन शासन के आर्हत् धर्म पर हुई। उस वक्त वहां पर प.पू. पन्यास श्री गंभीरविजयजी म.सा. वहां विराजमान थे। उन्होंने उपद्रव निवारण हेत संकल्प सहित परमात्मा का स्नात्र महोत्सव का आयोजन करना तय किया। वैशाख बीदि छट्ठ के दिन विधिपूर्वक स्नात्र के लिये जल लाया गया, वैशाख बिदि बारस के दिन बड़े ही ठाठ से परमात्मा का स्नात्र महोत्सव हुआ। कार्य भी जन हित का था, पूजा में असीम उत्साह था। बड़े उत्साहपूर्वक वरघोड़ा निकाला गया पूरे नगर के चारों और स्नात्र जल का छिडकाव किया गया इस जल धारा के प्रभाव से व्याधि की शान्ति होती गयी चंद दिनों में ही भाव नगर शहर रोग से मुक्त हो गया। (श्री जैन धर्म प्रकाश अंक-3 संवत् 1956, पाठशाला ग्रंथ प.पू.आचार्य श्री पधुमनसूरिजी म.सा.)
वि.संवत 2041-42-43 के भयंकर दुष्काल से गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ ग्रसित थे नदी, तालाब आदि सूखे पड़े हुए थे, सबको बरसात का ही इंतजार था। इस परिस्थिति के उपायरूप पुन्योद की जागृति के लिये प.पू. आचार्य भगवत् श्री प्रद्युमनसूरिजी म.सा. ने श्री शत्रुजय तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ दादा के अभिषेक का विचार किया और आगमप्रज्ञ प.पू.मुनिराज श्री जंबविजयजी म. सा. के साथ चर्चा कर अभिषेक के लिए विधान की तैयारियाँ की।
सभी प्रकार के उत्तम द्रव्य विपुल प्रमाण में मँगवाये गये। अंबर, कस्तूरी जैसे दुर्लभ कीमती द्रव्यों सुगंधी द्रव्य, केसुडा के फूल, अगरू काष्ट इत्यादि तथा गजपद कुंड, विविध नदियों के जल इत्यादि सामग्री मंगवायी गयी। उत्साह और उल्लसित वातावरण में मंगलबेला में प्रभुजी का अभिषेक प्रारंभ हुआ। चतुर्थ मंगलमुत्तिका स्नात्र में जिन प्रतिमा को लेप हेतु मृत्तिके के प्रवाही लेप द्वारा हल्के हाथों से मर्दन करके विलेपन किया, विलेपन का पूर्ण असर बिंब को पहुँचे