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________________ सांभळो कळश जिन - महोत्सवनो इहां, छप्पन कमरी दिशि, विदिशी आवे तिहां, माय सुत नमीय, आनंद अधिको धरे, अष्ट संवर्त - वायुथी कचरो हरे। वृष्टि गंधोदके, अष्टकुमरी करे, अष्ट कळशा भरी, अष्ट दर्पण करे, अष्ट चामर धरे, अष्ट पंखा धरी, चार रक्षा करी, चार दिपक ग्रही। घर करी केळनां, माय सुत लावती, करण शुचि कर्म, जळ कळशे न्हवरावती, कुसुम पूजी, अलंकार पहेरावती, राखडी बांधी जइ, शयन पधरावती। नमीय कहे माय! तुज बाळ लीलावती, मुरू रवि चंद्र लगे, जीवजो जगपति; स्वामी गुण गावती, निज घेर जावती, तेणे समे इन्द्र सिंहासन कंपती। जिन जनम्याजी, जिन वेळा जननी धरे; तिण वेळाजी, इन्द्र सिंहासन थरहरे; दाहिणोत्तरजी, जेता जिन जनमे यदा; दिशि नायकजी, सोहम इशान बेहु तदा। तदा चिंते इन्द्र मनमां, कोण अवसरे ए बन्यो; जिन जन्म अवधिनाणे जाणी, हर्ष आनन्द उपन्यो; सुघोष आदि घंटनादे, घोषणा सूरमें करे; सवि देवी देवा जन्म महोत्सवे, आवजो सुरगिरिवरे। अहीं घंटनाद करवो... ओम सांभळीजी, सुरवर कोडी आवी मले; जन्म महोत्सवजी, करवा मेरू पर चले; सोहम पतिजी, बहु परिवारे आवीया; माय जिननेजी, वांदी प्रभुने वधावीया। 10
SR No.002355
Book TitleParmatma ka Abhishek Ek Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJineshratnasagar
PublisherAdinath Prakashan
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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