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________________ जैन परंपरा में तीर्थंकर परमात्मा के जन्म के बाद जब 56 दिक्कुमरी द्वारा भगवान और उनकी माता के शुचि कर्म के तुरन्त बाद परमात्मा को खुद इन्द्र महाराजा अपने कर कमलो में लेकर मेरू पर्वत पर ले जाकर अभिषेक विधान का आयोजन करते हैं। यह कलश देवताओं की मदद से आठ प्रकार के कलशों, हीरा, मानिक, सुवर्ण, रोप्य, मिट्टी आदि द्रव्यों से बना हुआ होता है जो कि 25 योजन ऊँचा और 12 योजन चौड़ा तथा विशाल होता है । ऐसे एक कोटि साठ लक्ष की संख्या में क्षीर समुद्र के जल द्वारा परमात्मा का अभिषेक होता है क्योंकि वहाँ पर क्षीर समुद्र का जल ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इतनी विशाल जल राशि और तुरन्त कर जन्मा बालक एवं मेरू पर्वत जैसा स्थान आपको जरूर संशय में डालता होगा, और संशय होना स्वाभाविक भी है, ऐसा ही संशय खुद इन्द्र महाराजा को भी हुआ था और भगवान ने उनकी शंका का निराकरण अपनी शक्ति का परिचय देते हुए सिर्फ अपने पैर के अंगूठे को हिलाते ही मेरू पर्वत के साथ सारी सृष्टि को कंपायमान किया था । शास्त्रों में भगवान के बल का वर्णन अनन्त बताया है। लेकिन यहाँ पर याद रहे कि अनन्त शक्ति के स्वामी तीर्थंकर परमात्मा के इस साक्षात् अभिषेक में सिर्फ विशिष्ट शक्ति के स्वामी देवी - देवता ही शामिल हैं, किसी भी मानव का वहाँ पर अभिषेक करना तो दूर किन्तु देख पाना भी संभव नहीं है। वहाँ पर जाने योग्य न तो हमारे पास वैसा वैक्रिय धारी शरीर है और न शक्ति है। फिर हमारे मन में एक प्रश्न जरूर उठता है कि हम किस देवता के आचार का काल्पनिक अनुकरण कर रहे हैं । महाजनों येन गतः स पन्थाः ज्ञानिओं ने ऐसा किस आधार पर फरमाया, इसका आधार क्या हो सकता है, ये सब प्रश्न हमारे मन में उठने स्वाभाविक हैं। जल अभिषेक का महत्व थ्वी पर विविध प्रकार के जल स्थान और गुणों पर आधार के पाये जाते हैं।
SR No.002355
Book TitleParmatma ka Abhishek Ek Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJineshratnasagar
PublisherAdinath Prakashan
Publication Year
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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