________________
हैं। धर्म और कला से भी प्रभावित होते हैं। यहाँ तक कि सत्य के विषय में विभिन्न युग के मनीषी चिन्तकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार प्रस्तुत किये हैं और उसे अपनी अपनी मान्यता/अनुभूति के आलोक में भिन्न-भिन्न प्रकारों में जनता के समक्ष उपस्थित किया है।
नीति का सम्बन्ध भी जीवन के सत्य से है। जीवन अर्थात् व्यक्ति का व्यक्तिगत, पारिवारिक, जातीय, राष्ट्रीय, सामाजिक-सभी प्रकार के सम्बन्धों के व्यवहारों के ताने-बाने से बुना हुआ एक सम्पूर्ण वस्त्र है।
सामाजिक जीवन में 'सामान्य उचित' को नैतिक आधार पर उचित होना अनिवार्य है। नैतिक आधार पर उचित वह होता है जिसे सामाजिक मान्यता प्राप्त होती है। यह 'समाज द्वारा अनुमोदित उचित' ही 'नैतिक उचित' है। यही स्थिति 'नैतिक चाहिए' के विषय में है, वह भी समाज द्वारा मान्य होना चाहिए।
कभी-कभी समाज की मान्यताएँ व्यक्ति की इच्छाओं की प्रतिरोधक भी हो सकती हैं। इसी तथ्य को रूसो ने इन शब्दों में व्यक्त किया है
मानव स्वतन्त्र जन्म लेता है किन्तु सर्वत्र बंधनों में रहता है।
यद्यपि वह बंधन मानव को अखरते हैं; फिर भी वह सामाजिक प्राणी (social animal) है, अतः वह सामाजिक बंधनों/मान्यताओं के साथ समझौता करता है और फिर यह मान्यताएँ उसके जीवन का अंग बन जाती हैं, सहज हो सकती हैं। इन्हीं मान्यताओं में वह 'नैतिक उचित' की निष्पत्ति अनुभव करने लगता है।
और नैतिक बन्धन विवशता नहीं, आवश्यकता बन जाते हैं।
नीति का यह एक रूप है, जो समाज-सापेक्ष है। यह बदलती हुई परिस्थितियों के साथ अनुकूलन और समायोजन स्थापित करता है। इसका महत्व इस तथ्य में है कि व्यक्ति समाज से अलग-थलग नहीं होता, समाज के साथ चलता रहता है और समाज की उन्नति के साथ-साथ वह भी प्रगति के सोपान चढ़ता रहता है, शनैः-शनैः स्वयं को उन्नत बना लेता है, सभ्य सुसंस्कृत (civilized, cultured and polished) व्यक्ति बन जाता है।
यह नीति का एक पहलू है, व्यावहारिक पक्ष है। इसे व्यावहारिक नीति (morality in behaviour) भी कहा जाता है।
नीति का एक दूसरा पक्ष भी है। वह शाश्वत है, वह बदलती हुई परिस्थितियों के साथ नहीं बदलता।