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नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास / 19
(4) छविच्छेद-अंगोपांगों के छेदन का दण्ड देना।
समाज की सुव्यवस्था के लिए इन्हीं के युग में सहयोग नीति का प्रचलन हुआ तथा वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आई।
साम-दाम-दण्ड-भेद-राजनीति की इन चार नीतियों और इनके सिद्धान्त निर्धारित किये गये।
तदुपरांत तब वे साधना-मार्ग पर चलने को उद्यत हुए उस समय उन्होंने अपना विशाल राज्य अपने सभी पुत्रों में विभाजित किया। बड़े पुत्र भरत को विनीता (अयोध्या) नगरी का राज्य दिया तथा अन्य पुत्रों को अन्य नगरियों का राज्य प्रदान किया। इस प्रकार उन्होंने उत्तराधिकार नीति निर्धारित की।
इस नीति का उद्देश्य था राज्य के लिए भाइयों के संघर्ष को समाप्त करना।
कैवल्य प्राप्त करने के बाद इन्होंने धर्म-धर्मनीति-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि का मर्म बताया। साधु और श्रावक (गृहस्थ) के धर्म और नीति का प्रचलन किया।
यों कर्मनीति के बाद धर्म नीति का विकास हुआ।
इसीलिए आवश्यकचूर्णि में कहा गया है कि ऋषभस्वामी सभी प्रकार की नीतियों के आदि पुरस्कर्ता थे।
यह मत जैन विद्वानों का ही नहीं अपितु वैदिक विद्वानों का भी है। श्रीमद्भागवत में भी इन्हें नीति और धर्म के संस्थापक के रूप में स्वीकार किया गया है। . भगवान ऋषभदेव का काल अत्यधिक प्राचीन है। वर्षों में इसकी गणना नहीं की जा सकती, किन्तु उनके द्वारा निर्धारित नीति के नियम समय प्रवाह के साथ यथावत् चलते रहे। युग बीतते गये।
1. स्थानांगवृत्ति, 7 13 1557 --वहां हाकार से लेकर छविच्छेद तक सात नीतियों का वर्णन है। 2. त्रिषष्टि., 1/2/595 3. (क) उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ। - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 36/77 (अमोलक ऋषिजी) (ख) कल्पसूत्र (पुण्यविजयजी), 195/57
(ग) त्रिषष्टि, 1/3/1-17 4. णीतीओ उसभसामिम्मि चेव उप्पन्नाओ। -आवश्यकचूर्णि, 156 5. श्रीमद्भागवत, 5/5/28/563