SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 406 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन नहीं होता तो अणुव्रतों के पालन की - नैतिक सद्गृहस्थ बनने की प्रेरणा देते हैं। ' जैन-नीति की सापेक्षता अनेक कोटियों में संचरित होती है । एक उपनय है एक राजा ने किसी अपराध के कारण एक श्रेष्ठी के 6 पुत्रों को प्राणदण्ड दे दिया। श्रेष्ठी ने राजा के यहां पुकार की, बहुत अनुनय-विनय के बाद राजा ने एक पुत्र को क्षमादान दिया । इसी प्रकार जैन-नीति भी निरपेक्षता को श्लाध्य मानती है और अपेक्षा करती है कि नैतिक नियमों का कठोरतापूर्वक पालन किया जाना चाहिए, उनमें किसी प्रकार का दोष सेवन नहीं करना चाहिए, किंचित् भी शिथिलता नहीं आनी चाहिए। किन्तु वह व्यवहार की भी - परिस्थितियों की भी अवहेलना नहीं करना चाहती, क्योंकि नैतिक व्यक्ति - चाहे वह नैतिक चरमोत्कर्ष की स्थिति पर पहुँच चुका हो, संसार - त्यागी श्रमण बन चुका हो फिर भी उसका संसारीजनों से थोड़ा या बहुत सम्पर्क रहता ही है । अणुव्रती साधक और नैतिक सद्गृहस्थ तो संसार में रहते ही हैं । फिर वे सांसारिक प्रवृत्तियों, देश-काल समाज की स्थिति-परिस्थितियों से निर्लिप्त कैसे रह सकते हैं ? इन सबके नैतिक नियमों का पालन संसार - सापेक्षता में ही संभव है । 1 इसीलिए श्रमण साधन में अपवाद और अणुव्रतों की साधना में अतिचारों को स्थान दिया गया है । ब्रह्मचर्य महाव्रतधारी श्रमण स्त्री का स्पर्श तो क्या मन से भी उसका चिंतन नहीं करता; किन्तु वही श्रमण नदी में डूबती साध्वी को बचाकर तट पर ला सकता है । पर्वत से फिसली साध्वी का (महिला) हाथ पकड़कर उबार सकता है। इसी प्रकार अणुव्रती गृहस्थ कीड़ी की निरर्थक हिंसा नहीं करता; किन्तु शत्रु द्वारा देश पर आक्रमण किये जाने की संकट की घड़ी में शत्रु के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध कर सकता है । अतः यह कहा जा सकता है कि जैन नीति की सापेक्षता बड़ी बुराई से छोटी बुराई को चुनने की अनुमति प्रदान करती है । किन्तु उसके पीछे उद्देश्य पवित्र होना चाहिए, यह अनिवार्य है । 1. उत्तराध्ययन सूत्र, चित्त संभूइज्जं, 13वां अध्ययन ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy