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पुस्तक के विषय में मैंने अपनी प्रस्तुत पुस्तक 'नीतिशास्त्र' में नीति के इन दोनों पक्षों (शाश्वत नीति और व्यावहारिक नीति) पर स्पष्ट दृष्टि रखी है और इन दोनों को समुचित महत्व दिया है।
यह सत्य है कि प्रस्तुत ग्रन्थ को मैंने मुख्य रूप से जैन-नीति को आधारभूत बनाकर लिखा है, किन्तु इसमें सभ्य संसार की अर्वाचीन और प्राचीन नीतियों का भी समावेश किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक चार खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड में नीति का सामान्य पर्यवेक्षण है। इसमें वैदिक, बौद्ध, ईसाई, चीनी, यूनानी, मुस्लिम, प्रभृति सभी नीतियों के विशिष्ट तत्वों का दिग्दर्शन कराया गया
द्वितीय खण्ड संपूर्णतया जैन-नीति से सम्बन्धित है। इसमें सम्यग्दर्शन जो कि जैन-नीति और नैतिक साधाना का प्रमुख आधार है, उसके विवेचन के उपरान्त, व्यसनमुक्त जीवन, नैतिक जीवन के व्यावहारिक सोपान, नैतिक उत्कर्ष (श्रावकाचार), नैतिक चरम (श्रमणाचार) और नैतिक उत्कर्ष की मनोवैज्ञानिक भूमिकाओं का विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
तृतीय खण्ड में जैन-नीति का पश्चिमी नैतिक वादों के साथ तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात कर्तव्य-अधिकार और दण्ड एवं अपराध के विभिन्न सिद्धान्तों और अवधारणाओं को स्पष्टतः विशद रूप में विवेचित किया है।
अन्तिम चतुर्थ खण्ड में परिशिष्ट के रूप में नीति सूक्ति कोष दिया गया है।
जैन-नीति के स्वरूप को प्रस्तुत ग्रन्थ में मैं कितना स्पष्ट कर सका हूँ, यह निर्णय तो प्रबुद्ध पाठक ही कर सकेंगे। किन्तु मुझे इतना परितोष अवश्य है कि जैन वाङ्गमय की एक रिक्त विधा को मैंने भरने का एक लघु व नम्र प्रयास किया है।