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________________ अन्तर्गत उपासकदशा नामक आगम-ग्रन्थ में भगवान महावीर के दश प्रमुख उपासकों का जीवन एक प्रतीक है, जो अपने युग का प्रतिनिधित्व करता है। आनन्द बहुत सम्पन्न था। कृषि, वाणिज्य आदि के रूप में उसका बहुत बड़ा व्यवसाय था। यह सब तो था किन्तु एक नागरिक के रूप में अपने नैतिक दायित्वों को जिस प्रकार वह निभाता था, वह उसकी नैतिक अवधारणाओं की सुन्दरतम क्रियान्विति का साक्ष्य है। वैभव के बढ़ने के साथ-साथ तब उन्माद, अभिमान और जन-साधारण से पार्थक्य नहीं बढ़ता था, जो उनके नीतिनिष्ठ जीवन का संसूचक है। वर्तमान के सन्दर्भ में जब हम जाते हैं तो यह सब ऐतिहासिक प्रतीत होता है। जैन नैतिकता की जो अपनी असाधारण पहचान थी, वह अब सुरक्षित नहीं रह पायी है। इससे स्पष्ट है के जैनों ने कुछ ऐसा खोया है, जो काफी बहुमूल्य था। इस प्रकार अनेकानेक पहलुओं को आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी ने अपने ग्रन्थ में बहुत बारीकी से परखने का विद्वत्तापूर्ण प्रयत्न किया है। ग्रन्थ के अन्त में वैदिक, बौद्ध तथा जैन नीति वचनों का जो परिशिष्टों के रूप में प्रस्तुतीकरण किया गया है, उससे ग्रन्थ की उपयोगिता निश्चय ही बढ़ गई है। जैन नीतिशास्त्र के क्षेत्र में अपनी कोटि का यह पहला ग्रन्थ है, जिसमें आगम-काल से लेकर अब तक के जैन नीति के विविध आयामों को तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक दृष्टि से सम्यक् उपस्थापित करने का बड़ा सुन्दर समीचीन, समुचित प्रयास किया गया है। आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी का विद्वज्जगत निःसन्देह ऋणी रहेगा। जिज्ञासु पाठकों के लिए यह ग्रन्थ बड़ा उपयोगी तथा ज्ञानवर्धक होगा ही, विशेषतः उच्च अध्ययनार्थियों तथा अनुसन्धित्सुओं के लिए यह बहुत ही लाभप्रद सिद्ध होगा, जो भारतीय और भारतीयेतर नीतिशास्त्रों के सन्दर्भ में शोधरत हैं। -डॉ. छगनलाल शास्त्री एम., ए., (त्रय) पी-एच. डी. काव्यतीर्थ विद्यामहोदधि विजिटिंग प्रोफेसर मद्रास विश्वविद्यालय,
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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