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________________ 91/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार मलिन वस्त्र देख, उन पर गिला करना, अवांछित है। दृष्टि उनके गुणों पर हो ताकि गुणग्राही एवं विनम्र बनें। 4. अमूढ़ दृष्टि- लोक मूढ़ता, देव मूढ़ता, गुरु मूढ़ता आदि हैं। दुनिया की देखा-देखी, भेड़ चाल में हो लिये-जैसे किसी ने कहा कटक में बाबाजी सिद्ध है, सब इच्छा पूरी करते हैं या कोई देवी देवता फल देते है, फलां टोटका, जप, मंत्र, विधि, बलि से अभीष्ट पूरा होता है। देवता तो वासना आकांक्षा युक्त हैं वे हमें क्या मुक्ति दे सकते है? ब्रह्माजी ने पृथ्वी को बनाया। वे पृथ्वी पर अपनी पुत्री सरस्वती पर मोहित हो गए। सृष्टि की रचना में जैसे गाय बनाई, तो वे साण्ड बन गये। इन्द्र ऋषि-पत्नि पर कामी हो गये। देव मूढ़ता का अर्थ है जैसे किसी ने पत्थर पर सिंदूर 'पोत दिया, लगे सभी सिंदूर चढ़ाने और भयभीत हो गए। गुरु मूढ़ता में किसी कुपात्र को गुरु मान लिया, जो बिना सम्यग्-दर्शन, ज्ञान, चारित्र के हैं। 5. उववूह-उपगूहन- कुछ वैसा ही जैसे निर्विचिकित्सा, लेकिन अन्तर यह है कि इसमें जोर, अपने गुणों को प्रगट न करने पर, अपने ढोल न पीटने पर है क्योंकि स्वप्रशंसा इंसान की कमजोरी है जो अति रंजन से मुक्त नहीं है, वह सत्य यानि सम्यग दृष्टि से परे है। यह मर्यादा भी अनिवार्य है। जब दूसरे के लिए हम निर्णय देते है, उसकी परिस्थितियों को ओझल कर देते है। लोग अधिकांशतया कमजोर है, शैतान नहीं। महावीर ने कहा है "दूसरे के दोष को तो बताना मत, क्या पता किन-किन जन्मोजन्म में उसने अर्जित कर लिया-अनजाने।" जीसस ने कहा "निर्णायक मत बनना। अपने गुण बहुत दिखते है तब अहंकार का गुब्बारा फूलता ही जाता है। अतः अपने दोषों को देखकर उन्हें फोड़ना। अपने गुणों के गीत न गाना, दूसरो के वरदान को न छुपाना।"
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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