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जैन दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान/258
विजेता श्री वैंकटरमन वैज्ञानिक द्वारा यह प्रमाणित किया गया है। जैन दर्शन में भी पूर्व में भी यह कहा है कि आत्मा का आयतन शरीर के बराबर है क्योंकि वह शरीर के अणु अणु में व्याप्त है। ___ मनुष्य में एक विशिष्टता लोक संज्ञा है। अर्थात वह अपने पूर्वजों के द्वारा हर क्षेत्र में दिए गए ज्ञान को न केवल सुरक्षित रखता है वरन् उससे लाभान्वित होकर अपने पूर्वजों के कंधों पर चढकर उत्तरोत्तर वृद्धि करता जाता है। “परस्परोपग्रहो जीवानाम" (तत्वार्थ सूत्र , 5:21) जीवात्माएँ अपने सद्ज्ञान, भावना एवं चारित्र से एक दूसरे का उपकार करती हैं। हमें अपने पूर्वजों एवं वर्तमान महापुरूषों से प्रगति पथ मिलता है। मनुष्य की भौतिक समृद्धि एवं विकास का ये मूल मंत्र, उसके मस्तिष्क के विकास के आधार पर है। जो चेतना के विकास के आधार पर है इससे उसमें न केवल चेतना का विकास हुआ, वरन् चैतन्य का, आत्मा का, अर्थात सद (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) का भी विकास हुआ। मनीषियों ने 'जीओ और जीने दो' का मार्ग सिखाया। अहिंसा, सहअस्तित्व, अनेकान्त, सेवा, नैतिकता को स्वयं वरण कर अन्यों को भी उस मार्ग पर चलना सिखाया। जैन दर्शन इस सम्बन्ध में विशेष उल्लेखनीय है क्योंकि इसने प्रकृति के उन मूल सिद्धान्तों को भी धर्म में उतारा है जिनसे न केवल मनुष्य ही अपनी प्रगति कर सकता है वरन् समस्त चराचर विश्व लाभान्वित होता है। _ मनुष्य ने अपनी भौतिक उन्नति के लिए प्रकृति के साथ घोर कुठाराघात भी किया है। लगभग 40 प्रतिशत से अधिक वर्षा वनों की कटाई की जा चुकी है। कई दुर्लभ प्रजातियाँ, वनस्पतियों मनुष्यों के द्वारा विवेकहीन लोभ, अर्थ-लाभ एवं स्वादवश पशुओं का मांसाहार करने के कारण नष्ट हो चुकी हैं। यही नहीं अपनी क्षुद्रता से कट्टरपंथ, आंतकवाद, धर्मान्धता, विश्व-विनाशकारी शस्त्रों की होड़ से सम्पूर्ण विनाश की तैयार भी कर ली है।
निस्सन्देह विज्ञान ने हमारे जीवन को अनेका अनेक सुविधाएँ भी प्रदान की हैं। महामारियों, अभावों और अकालों से मानवता को