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255/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार करता है। "योग उपयोग जीवेषु" (5:44, तत्वार्थ सूत्र) जीवात्मा में काया, प्राण व आत्मा विद्यमान है।
एक ही समान कर्मों के समूह को कर्म-वर्गणा कहते हैं। इनमें से चार वर्गणाओं - 1. अणु वर्गणा 2. संख्यात अणु 3. असंख्यात अणु और 4. अनंत अणु वर्गणाओं के सहयोग से सम्मिश्रण, संघात, भेद आदि से भौतिक ब्रह्माण्ड (PhysicalUniverse) की रचना हुई जिसका उल्लेख किया जा चुका हैं। अब मुख्यतः वे वर्गणाएं जो वास्तविक जगत में जीव विकास के लिए आवश्यक हैं - वे पांचवी-आहार-वर्गणा, सातवीं-तैजस-वर्गणा (शरीर में पाचन क्रिया एवं उसको पचाने वाली), नवीं-भाषा-वर्गणा, ग्यारहवीं- मनोवर्गणाएं हैं। यहाँ कार्मण-वर्गणा का संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है। समस्त संसार कार्मण-वर्गणा के आठोंकाय-ज्ञान, दर्शन, साता, असाता, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गौत्र और अन्तराय कर्मों से खचाखच भरा हुआ है। कार्मण-वर्गणा अपने भाव एवं कार्य के अनुसार ऐसे कर्म-पुदगल ग्रहण करती हैं और तद्नुसार ही फल : देती हैं। इसमें 17 नम्बर की प्रत्येक शरीर वर्गणा भी सम्मिलित है। जिसका तात्पर्य एक शरीर में एक ही जीव है। अन्य जीव उस पर आश्रित नहीं है। इनमें छठी वर्गणा 10 वीं एवं 12 वीं अग्राह्य है, जिसका तात्पर्य है कि, जीवन के कर्मबन्ध के साथ उनसे छुटकारा भी संभव है। प्रथम चार वर्गणाओं की तरह 19 वीं वर्गणा निगोद, 21 .वीं सूक्ष्म निगोद, सृष्टि की भौतिक रचना में सहायक
विज्ञान के जगत में डार्विन की खोज जो प्राणियों के अवशेष (फोसिल्स) कंकाल, चट्टानों में दबी आकृतियों (फुट प्रिन्ट्स) के गहन अध्ययन एवं प्रमाणों पर आधारित थी इससे विदित हुआ कि लगभग चार सौ सत्तर करोड़ वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी बन सकी। उसके लगभग 1000 करोड़ वर्ष पूर्व बिगबेंग महाविस्फोट हुआ; और शनैः शनैः निहारिकाएँ, सितारे, ग्रह आदि बने और दस सौ