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मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता है
___ 1. जैन दर्शन मात्र जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति को ऊँच-नीच नहीं मानता। "कर्म से ही ब्राह्मण, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और शुद्र होता है।" उत्तराध्ययन सूत्र, 25/33/सूयगड़ों के 2/2/25 में उल्लेखित है, "जो अन्य को तिरस्कृत करता है कि मैं जाति, कुल आदि गुणों से विशिष्ट हूँ इस प्रकार गर्व करता है वह अभिमानी मनुष्य मरकर गर्भ, जन्म और मौत के प्रवाह में निरन्तर भ्रमण करता है। क्षण भर भी उसे दुख से मुक्ति नहीं मिलती।" जीव ने अनेक बार ऊँच-नीच गोत्र में भव भ्रमण किया है अतः जाति, कुल, गोत्र का अभिमान वृथा है।
शुद्ध जैन दर्शन किसी व्यक्ति की किसी अन्य पर केवल जाति, वर्ण, लिंग, क्षेत्र, सम्पद्राय आदि के बाह्य कारणों से श्रेष्ठता स्वीकार नहीं करता। हरिकेशिबल मुनि, मलिन वस्त्रों में थे तथा महान तप के कारण क्षीणकाय थे, लेकिन ज्ञान, ध्यान, आदि "गुणों से विभूषित थे। जाति के गर्व से चूर, ब्राह्मणों ने यज्ञस्थल पर इन चण्डाल-मुनि का उपहास कर उन्हें प्रताड़ित करने का प्रयास किया, (उ.सू 12/41), तब मुनि ने ब्राह्मणों को ब्राह्ममणत्व की सही विशेषता दर्शाई, " जो निसंग और निशोक है, राग-द्वेष भय एवं असत्य से परे है..... जो स्वर्गीय, मानवीय और पाशविक किसी भी प्रकार का अब्रह्ममचर्य सेवन नहीं करता वह ब्राह्मण है। ब्राह्मण के लिए धन ग्रहण करना वमन किये हुए पदार्थ ग्रहण करने के समान है। ।