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________________ 17/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार विचलित नहीं हुए। साधना-काल में प्रथम वर्ष में ध्यान अवस्था में ग्वाले ने अपने बैल पुनः न मिलने पर और उत्तर न पाने पर चर्म जुए से निर्ममता पूर्वक पीटा। इन्द्र उनकी रक्षा के लिए उपस्थित होने पर उसे कहा “आत्मा मुक्ति का मार्ग स्वालंबन का मार्ग है, इसमें किसी के सहारे की आवश्यकता न कभी रही है, न रहेगी।" . साधना काल के लगभग साढे बारह (12.6) वर्षों में केवल 350 दिन छोड़कर, महावीर ने निर्जल उपवास किये। महावीर के बाद के जैन संघ में प्रथम छ: आचार्य सुधर्मा, . जम्बू, अप्रभव, शंयंभव, यशोभद्र एवं भद्रबाहु तथा. संभूतविजय हुए। जम्बू अंतिम केवली हुए। श्रुतकेवलि- शंयंभव ने अपने पुत्र मणक शिष्य को संक्षेप में समस्त जैन दर्शन का ज्ञान कराने के लिए दशवैकालिक सूत्र की रचना, दस अध्याय मात्र में कर दी। जिसे मणक ने छ: माह में ही अध्ययन कर लिया। उसकी तब मृत्यु हुई जिसका पूर्व बोध शंयंभव को होने से ही उन्होंने उक्त रचना की थी। पुत्र शिष्य की मृत्यु पर गुरु को गहन शोक हुआ। तब शिष्यों ने पूछने पर मणक उनका पुत्र होने का रहस्य बताया। पहले नहीं बताने का कारण बताया कि पहले बता देने पर मणक को ज्ञात होने पर गुरु शिष्य का अनुशासन नहीं रह पाता। शिष्यों के आग्रह पर उक्त ग्रंथ को लुप्त नहीं किया। ___भद्रबाहु-प्रथम, अंतिम श्रुतकेवलि थे। जिन्हें 14 पूर्व एवं 12 अंगों का ज्ञान था। महावीर निर्वाण के 170 वर्ष बाद उनका स्वर्गवास हुआ। भयंकर अकाल में साधुओं का नियमित अध्ययन छूट गया था। तब भद्रबाहु नेपाल चले गये थे। स्मृति से उनके साधुओं ने 11 अंगों की रचना की। लेकिन दृष्टिवाद, जो 12 वां अंग था, रह गया। तब श्री संघ ने आदेश दिया कि भद्रबाहु स्वामी . पाटलीपुत्र संघ सभा में आवें। लेकिन उनका महाप्राण व्रत वहाँ प्रारम्भ हो जाने से वे बारह वर्ष तक नहीं आ पाये। इस पर संघ के आदेश से नेपाल में ही 500 साधुओं को दृष्टिवाद सीखाना शुरू किया। तदुपरान्त भद्रबाहु ने नेपाल छोड़कर भारत की ओर
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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