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जैन दर्शन एवं हमारी जीवन पद्धति (प्रयोग आधारित)/184
इत्यादि-इत्यादि। यही हमारी हाईपोथेलेमस एवं पिनियल ग्रंथियाँ हैं। अतः एकान्त का आग्रह या दुराग्रह सर्वथा नहीं।
इसी क्रम में फिर हम पिच्युटरी ग्रंथियाँ ज्ञान केन्द्र पर ध्यान बढ़ाते हैं। हम केवल श्रद्धा तक सीमित न रहें लेकिन ज्ञान से उसे प्रमाणित करें, पुष्ट करें, जैसे विज्ञान, प्रयोग से उस धारणा या सिद्धान्त को पुष्ट, करता है उसी तरह गहरे ज्ञान से हमारी श्रद्धा और मजबूत होगी। सभी वनस्पति एवं जीव-प्राणी प्रकृति के अभिन्न अंग हैं, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में ही विश्व का कल्याण है। पर्यावरण के गहरे अध्ययन ने अहिंसा के इस सिद्धान्त को प्रमाणित कर दिखाया है। इसी क्रम में शीर्ष पर सहस्रार चक्र-बिन्दु पर ध्यान का अर्थ है, इस दर्शन के साथ-साथ हमारा आचरण भी उतना ही अच्छा हो हम नैतिक, स्वेच्छा से बनें। ___ बाह्यय पूजा, तिलक, छापों, से ज्यादा हमारी प्रवृत्तियाँ, समभाव में, शांति में, दया, क्षमा, सत्य, त्याग, वीतराग, भाव में रमण करें। जगत का सत्य-निवृति की ओर हम बढ़ें , इन गुणों से हर्षित होकर सहज-भाव से निराभिमान होकर, इन्हें अपनावें "परस्परोपग्रहों जीवानाम।" परस्पर सहयोग तत्परता से करें, मनुष्य जन्म का यही मधुर फल है। इससे इन गुणों को प्राप्त करें। हमारी पुरूषार्थ मय गुण ग्रहण की जीवन पद्धति ही जैन दर्शन का सार है। जहाँ कई जीवों में ओध-संज्ञा होती है, आने वाले संकट को भांप कर जैसे भुकम्प ., तूफान, सूनामी, आकुल-व्याकुल हो प्राण रक्षा हेतु भागने लगते हैं वहाँ मनष्य में लोक संज्ञा होती है । वह पूर्वजों के ज्ञान, कला, हुनर की निधि को प्राप्त कर पूवों के कंधों पर चढ़कर उसे और आगे बढ़ाता है।
अतः जहाँ अन्य जीव मात्र हजारों, वर्षों में या आदि काल से वैसे ही हैं, मनुष्य उसमें सतत विकास कर रहा है। यद्यपि पाया गया है कि मनुष्यं चांद पर पहुंच गया है लेकिन अभी धरती पर प्रेम से रहना नहीं सीख सका है। जैन दर्शन से प्रेरित जीवन पद्धति से स्वयं जैन भी और अधिक सीखें औरों के लिए भी नमूना बनें।