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________________ जैन दर्शन एवं हमारी जीवन पद्धति (प्रयोग आधारित ) / 182 सच्चे धर्म की कसौटी के रूप में कहा है, "धम्मो मंगल मुक्किट्टं, अहिंसा, संयंमो, तवो देवावितं ( नमः संति; जस्स धम्मो, सया मणों)" । धर्म वह है जो सर्वजन हिताय, श्रेष्ठ मंगल हो। ऐसा वह तभी हो सकता है जब वह अहिंसा यानी प्राणी - मात्र की अहिंसा पर हर संभव रूप से आधरित हो, मन वचन काया से स्वयं करने से, दूसरे से करवाने से एवं ऐसे ही रूप में कार्य अनुमोदन से होती है। ऐसे ही धर्म में, दस धर्म आ जाते हैं जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव (कपट रहित नितांत सरल ), सत्य, शौच (लोभ रहित), संयम (परिग्रह, विषय - विकार पर नियंत्रण), तप जैसे मिताहार, सेवा, स्वाध्याय आदि त्याग, नम्रता, बोध इत्यादि हो । इसी तरह उत्तम बारह भावनाओं को स्मरण करें जैसे जीवन की क्षणभंगुरता, अशुचिता, अशरणता, संसार की स्वार्थ-लोलुपता, ज्ञान की अल्पता, अतः दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की महत्ता के भावों का सतत् स्मरण करें, यही शुभ ध्यान है । आत्म तत्व की ओर अग्रसर होने के लिए पूजा, वंदन, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, बाह्यय साधन अवश्य उपयोगी हैं। आलम्बन है, लेकिन ध्यैय आत्म शुद्धि है, सद्ज्ञान, दर्शन का विस्तार है, आत्म तत्व की पुष्टि है, इनके बिना इसका महत्व नहीं है, केवल लेबल न बन जाए। श्री बनारसीदास जैन दर्शन के उत्तम चिंतक हुये हैं। उन्होंने सारांश में आत्म-तत्व के निम्न परख बिन्दु (कसौटी) दिये हैं समता, रमता, उर्ध्वता, ज्ञायकता, 'उद्भाष, वेदकता, चेतन्यता, ये हैं, जीव विलास । समभाव रखें, सुख, दुख में, धनी, निर्धन होने में, मान अपमान आदि आदि में । शुभभाव में रमण, उच्च - विचार, सत्य की खोज एवं चाह, ज्ञान की ललक, जड़ता से, विषयों से, रूढ़ियों से, पापों से दूरी ये आत्मा के लक्षण हैं। इनकी वृद्धि का एक सरल उपाय, सामायिक एवं ध्यान साधना है। (ductless), नाली-रहित ग्रंथियों या " दूसरे शब्दों में एण्डोक्रीन शरीर में स्थान विशेष पर — .
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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