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कर्मबन्धन के कारण एवं क्षय तत्वार्थ के आलोक में
कर्म निवारण ही प्रत्येक मानव के जीवन का चरम लक्ष्य है। निम्न वर्णित आठ कर्म बंधन एवं उनका फल बताया गया है। कर्म बन्धन न्यूनतम हों उसके प्रभाव पद, उपायों को भी तत्वार्थ के छठे पाठ के सुगम एवं प्रभावी दोहों के साथ सम्यग्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लाभ को प्रस्तुत किया गया है।
मैत्रीप्रमोदकारूण्यमाध्यस्थानि सत्वगुणाधिकक्लिश्यामाविनेयेषु
___ -(7.6, तत्वार्थ सूत्र) अर्थ:- सब जीवों से मैत्री भाव, विशेष गुणी जनों से प्रमोद भाव, दुखी प्राणियों के लिये करूणा भाव, एवं वृथाभिमानियों के लिये माध्यस्थ भाव रखना पूर्व व्रतों के पालने में हितकारी होता है। जिससे क्षमा, दया, भाव एवं सहन शक्ति बढ़ती है।
martri pramodkārunya-mādhyāsthayanic satva gunādhi kya klisyamāna vinayesu
(7.6 , Tattavarth Sutra) MEANING:- Such relfections on fellow feeling for all beings, intimacy and reverence for noble ones, piety and pity for oppressed ones, and indifference for vain and vile persons, would help, observance of earlier vows in