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________________ परमश्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरी की अन्तिम देशनामय सरलार्थ एवं श्रद्धांजलि/136 "जिस समाज और धर्म में उज्ज्वल सहित्य की सत्परम्परा बनी रहती है, वही समाज और धर्म जीवित रह सकते हैं। पिछली सदियों में समय की मार से बड़े-बड़े मठ-मंदिर धर्म स्थान टूटे और बने, कई खण्डहर बन गए, किन्तु सद्-साहित्य की अविच्छिन्न परम्परा ने इस देश के समाज और धर्मों को जीवित जागृत बनाए रखा, हमने अपने जीवन और श्रम का एक बहुत बड़ा अंश इसी ज्ञान ज्योति को जलाये रखने में लगा दिया। तभी अर्द्धमागधी भाषा का वृहद कोष तथा अन्य कई उपयोगी ग्रंथों की रचना संभव हो सकेगी। अथाह ज्ञान समुद्र को मथकर, अनेक आगम - शास्त्रों को निचोड़कर रचा गया वह विपुल साहित्य सदैव तुम्हारा मार्गदर्शन करता रहेगा। इस शरीर का साथ तो निकट भविष्य में छूटने वाला ही है, किन्तु हमारा ज्ञान शरीर सदैव तुम्हारे लिए उपलब्ध रहेगा, जिसके प्रकाश में तुम अपना पथ प्रशस्त कर सकोगे। सदियों से चली आ रही अविच्छिन्न ज्ञान परम्परा को हमारे बाद भी जीवित जागृत बनाए रखना।" "मृत्यु प्राणियों के लिए एक मंगलमय विधान है। मृत्यु के पथ से ही चलकर प्राणी जरा, आधि, व्याधि आदि से मुक्त होकर आगे नए जीवन, नए लोक में पग धरता हैं। यह देह तो नश्वर है, आत्मा ही अजर-अमर है, अविनाशी है। वही सत्य भी है और सनातन भी। हमारे परलोक प्रयाण पर शोक मत करना। श्रद्धा, संयम, सदाचार का आधार लेकर हमारे शेष कार्यों को आगे बढ़ाना। लोक मंगल की कामना से सदैव जनहित में जुटे रहना। सद्ज्ञान सद्धर्म व सदाचार की उपासना को जीवन का आधार बनाए रखना। भगवान् अरिहन्त प्रभु की वाणी का आलोक तुम्हारा -हमारा सबका कल्याण करें, यही मंगल भावनाएं सदैव बनाए रखना।" "सारणा-वारना-चोयणा आदि करते हुए, सुशिक्षा देते समय, तुम्हारे जीवन को तेजोमय-सामर्थ्यवान बनाने के प्रयास में
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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