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125/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
सावत्थि पुव्व पत्थिवंच वरहत्थि मत्थयपसत्थ
विच्छिन संथयं, थिर सरिच्छवच्छ पयगय लीलाय माण वरगंध हत्थि पत्थाण पत्थियं (७)
भगवान अजितनाथ का दीक्षा के पूर्व श्रावस्ती नगर के राजा के रूप में सुन्दर उपमाओं युक्त इस गाथा में विस्तार से वर्णन है, जिसका कुछ अंश ऊपर दिया है। श्रेष्ठवर गंध हाथी की तरह जिनकी चाल थी, जिनका मस्तिक एवं ललाट भी प्रशस्त एवं ऐसे उसी तरह विशाल था। शरीर का वर्ण तप्त सोने सदृश तथा वाणी देवदुन्दुभि तुल्य मधुर थी। इसी तरह चक्रवर्ती श्री शांतिनाथ प्रभु के दीक्षा पूर्व का वैभवतल स्पर्शी है। "जो बावत्तरि पुरवर सहस्सवर नगर निगम जणवद वई
बत्तीसाराय वर सहस्शाणुयाय मग्गो।"(11) जिनके अधीन बहत्तर हजार बड़े नगर निगम, बतीस हजार राजे महाराजे, छ: खण्ड के स्वामी, जिनकी सेना में चौरासी लाख हाथी घोड़े उतने ही रथ थे। वैभव में चौदह रत्न,नव महानिधि आदि एवं चौसठ हजार युवतियाँ थीं। कवित्व की अनुपम कला में -
"देवदाण, विंदचंद, सूरवंद! __ हट्ठ तुट्ठ, जिट्ठ, परम लट्ठ रूव! धंतरूप पट्ट सेय, सुद्ध, निद्ध धवल दंतपति। संत्ति! संत्ति, कित्ति, मुत्ति ,जुत्ति, गुत्ति पंवर।।"(14)
'देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र, सूर्य से पूजित, हर्षित, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट हैं। तप्तचांदी के पाट समान श्वेत, निर्मल, स्निग्ध, उज्ज्वल इनकी दंत पंक्ति है।
दोनों देवों (प्रभु) को नव शरद चन्द्रमा से शीतल, सूर्य से अधिक प्रकाशवान, इन्द्र से अधिक स्वरूपवान. धरणीधर से अधिक धैर्यवान माना है।