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________________ अनेकान्त एवं स्याद्वाद/116 रंग का दिखता है लेकिन उसमें कई रंग घुले हुए हैं। निहारिकाएँ अरबों अरबों मील विस्तृत हैं। कईयों पर हुई घटनाएँ वर्षों पश्चात् हमें दृष्टिगोचर होती हैं। हालांकि प्रकाश की गति 1 लाख 86 हजार मील प्रति सैकेण्ड है। इस प्रकार हमारी सत्य को समझने की सीमाएँ हैं। मति ज्ञान एवं श्रुतिज्ञान में भी इसकी चार अवस्थाएँ है। जैसे (1) अवग्रह (2) ईहा (3) अवाय (4) धारणा-यह ज्ञान मोह मायाग्रस्त, स्वार्थी, एकांगी भी हो सकता है और अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार 'अवग्रह' अवस्था में केवल अस्पष्ट रूपरेखा ही समझी जा सकती है। तत्पश्चात् भी संदेहात्मक स्थिति रहती है कि रस्सी जैसा होने से वह सांप तो नहीं है - 'ईहा' अवस्था है, उसको छूने पर फुफकारने से सांप होना तय हो जाता है और उसके चलने से शंकाएँ समाप्त होकर 'धारणाएँ' सुनिश्चित हो जाती हैं। यहाँ तक कहा गया है कि व्रत धारण करने वाले व्यक्ति का व्रत निष्फल रहता है यदि यह निःशल्य नहीं है। "निःशल्यों व्रती।" तत्वार्थ 7, 13 शल्य-अर्थात कांटा। यदि मोह माया के साथ फल की इच्छा रखे हुए व्रत ग्रहण किया जाता है तो वह व्रती नहीं कहा जा सकता। प्रभु जो इन सबसे रहित थे, केवली थे उन्होंने कई अपेक्षाओं से, गणधरों को, उनके प्रश्नों के उत्तर दिये। विस्तार भय से केवल कुछ उदाहरण ही देते हैं । जीव के बारे में जामालि को उत्तर देते हुए भगवान ने कहा- "जीव शाश्वत है, वह था और होगा इसलिए वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अटल, अक्षय.... एक अपेक्षा से जीव अशाश्वत भी है वह नेरइक होकर तिर्यच हो जाता है, फिर मनुष्य और मनुष्य होकर देव भी । भाव एवं क्रिया अनुसार कर्म बंधन के कारण बदलता रहता है- इस दृष्टि से जीव अशाश्वत है। गौतम को भी भगवान ने कहा " द्रव्यार्थिक
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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