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97/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
दर्शन का कुछ विकास सम्यक्त्व की ओर हुआ है। नारलिक-द्वीप वासियों को केवल नारियल का स्वाद ज्ञात है, भात का नहीं। उस गुणस्थान के जीवों का सम्यकत्व का आनन्द अनुभव नहीं है , मात्र कुछ सुना समझा है। ___4. अविरत् सम्यक् दृष्टि- जब जीव भवसमुन्द्र में गोते खाते-खाते, नदी के पत्थर की तरफ घिस-घिस कर गोल हो जाता है, कर्म की अकाम निर्जरा से उसकी प्रचण्ड प्रकृति में कुछ परिवर्तन-नरम रूख आता है या किसी प्रतिमा-दर्शन, गुरु के उपदेश आदि से वह अनंतानुबंधी मजबूत वैर, क्रोध, मान, माया, लोभ की मजबूत गांठ कम करता है। तब उसे सही राह सम्यक्-दर्शन विवेक, अनेकांत दृष्टिगत होने लगते हैं। जिनेश्वर में आस्था एवं जीव मात्र के प्रति अनुकम्पा भाव में वृद्धि होती है। सत्य आदि धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा निःशंक, आकांक्षा रहित, अभय एवं अभिमान रहित, विनम्र होकर रहने लगता है। इनसे एक विशिष्ट-स्थिति प्राप्त होती है, जिसे यथा-प्रवृत्तिकरण कहते है। यह जीव के विकास की उत्क्रांति है। राग-द्वेष की अभेद्य-ग्रंथि के वह समीप पहुंच जाता है। हालांकि उसे भेद नहीं सकता। दूसरी ओर मोह माया के बंधनों भव भ्रमण के अनंत कष्टों से मुक्ति कामना इन दोनों भावों में द्वन्द्व होकर भव्य जीव आगे के गुणस्थान में बढ़ता है।
मोहनीय कर्म की सत्तर कोटा-कोटी स्थिति को घटा कर एक अन्तः कोटा-कोटी कर लेता है। अन्य कर्मों की स्थिति भी इसी तरह घटा लेता है, केवल आयुष्य कर्म के अलावा जो तेतीस-सागर है |जीव नें ऐसी स्थिति पूर्व में भी अनेक बार प्राप्त की हैं यदि भव्य जीव और आगे बढ़कर अपूर्व करण एवं अधिकाधिक उन्नत अवस्थाएं प्राप्त करें तो अनिवृत्तिकरण, अन्तरकरण एवं वीतराग बन सकता है। आगमविद् श्री प्रकाश मुनि के शब्दों में सम्यग्दर्शन के स्वर्णपात्र में चारित्र रूपी अमृत के सहारे आगे चलकर मुक्ति रूपी अमर फल पाता है। श्री शालिभद्र