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________________ 95/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार 11. उपशांत कषाय छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान। 12. क्षीण-कषाय छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान। 13. सयोगी केवली गुणस्थान। 14. आयोगी केवली गुणस्थान। मोक्ष-गामी जीवात्माओं ने वास्तविक रूप से इन अवस्थाओं का अनुभव किया है जो मोक्षपथ के संकेत-पत्थर हैं। जैन दर्शन में कर्मनिवारण की दशाओं का यह अत्यन्त मार्मिक, गहन शास्त्रीय एवं आध्यात्म विज्ञान का प्रयोगात्मक वर्णन है । इसलिए यह मात्र बौद्धिक कवायद नहीं , आत्म विकास की कठिनतम् सर्वस्व समर्पण की यात्रा है। जो "सहस्सं सहस्साणं दुज्जयजिणे। एगों जिणेज्ज अप्पाणं, एससेपरमोजओ।" संग्राम में लाखों योद्धाओं को पराजित करेन की अपेक्षा, आत्म विजय परम विजय है। ___1. जैसे पहले गुणस्थान का नाम है, ठीक वैसे ही इस प्रथम अवस्था में जीव की दृष्टि लगभग सर्वथा मिथ्या दृष्टि यानी विपरीत होती है। उसका विश्वास कुकृत्य, कुविचारों में रहने से कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को सुदेव, सुगुरु, सुधर्म मानता है एवं इसे सही कार्य मानता है। फिर भी गुणस्थान इसलिए कहा गया है कि कुछ बोध उसे अवश्य है- जैसे उसे पशु एवं मनुष्य की, या दिन रात की पहचान है, जो अभव्य में या किसी अंश में निगोद के जीवों तक में होती है। यह जीव की निकृष्ट-प्रथम ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय एवं चरम मिथ्यात्व की अवस्था है, जिसमें बुद्धि, दर्शन, ज्ञान का विकास ,शून्य समान है। वह घोर कुकर्म करता हैं, अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए जीव वध या गलत मान्यता से पशु-बलि या कुर्बानी के नाम क्रूरतम हिंसा जैसे भाले फैंक-फैक कर, गोद-गोद कर ऊंट जैसे बड़े जीव या अन्य जीव के प्राण लेकर उनका माँस भक्षण करते हैं। यहाँ तक कि अर्थ-लाभ के लिये कत्ल के कारखाने चलाते हैं, निर्दोष लोगों की नर-बलि,
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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