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तरंगवती तुम्हें बाँधा और पीट उसके लिए मुझे क्षमा कर देना ।'
यह सुनकर मेरे प्रियतम की दृष्टि में उस उपकारी चोर की ओर मित्रभाव भर आया जैसे उसके उपकार के चूंट पी रहा हो । वह गद्गद् एवं मधुर वचन से कहने लगा, 'आप अपने मालिक के आज्ञाकारी हो; परंतु हे वीर, हम जो अत्राण, अशरण, जकडे, निपट निराश होकर बचने की आशा खो चुके थे उन्हें इस प्रकार जीवनदान देकर आपने हम पर असामान्य उपकार किया है।
मैं हूँ वत्सपूरी के सार्थवाह धनदेव का पुत्र । मेरा नाम पद्मदेव है। आपके कहने से यदि कोई वहाँ आकर मुझे मिलेगा तो मैं उसके साथ आपके लिए पुष्कल धन भेज दूंगा । ऐसा करने का आप मुझे वचन दें तब मैं यहाँ से हटूंगा । और आप शपथ लीजिए कभी किसी कारण यदि आपका वहाँ आना हो तो ऐसा न हो कि आपके दर्शन बिना हम रह जायें ।
जीवलोक का एकमात्र सार जीवनदान देनेवाले का ऋण चुकाना है, जो इस समग्र जीवलोक में शक्य नहीं । दूसरा यह कि हम लोगों के प्रति आपके आदर एवं प्रेम के कारण हमारे पर अनुग्रह करके आपको स्थान-परिग्रह का संयम पालना पडेगा।
ऐसा जब कहा गया तब वह कहने लगा, 'मैं सचमुच धन्य एवं अनुगृहीत हुआ हूँ। आप मुझ पर पूर्ण प्रसन्न हैं इसमें ही आपने मेरा सारा कल्याण कर दिया है।' इतना कहकर 'अब आप जाओ, देर न करो,' कहता हुआ वह उत्तर की ओर घुम गया, और हम भी पश्चिम की ओर चल निकले । बस्ती की ओर प्रस्थान . रातभर कष्टप्रद-तिरछे मार्ग पर चले इस कारण पैरों की बिवाइयाँ फटकर
वहाँ घाव हो गए । उनमें से रक्त बहने लगा । बहुत कठिनाई से हम आगे बढ रहे थे। बहुत वेग से चलने के कारण भूख-प्यास एवं थकान से मैं चूर हो गई। श्रम एवं डर के मारे गला एवं होंठ सूख गये और मैं लडखडाने लगी। चलने में असमर्थ बन गई हूँ यह देख मेरे प्रियतमने मुझे पीठ पर उठा लेना चाहा। परंतु यह यलने के लिए मैंने बरबस कदम बढ़ाये ।
मेरी देख-भाल करते हुए मेरे प्रियतम ने कहा, 'हम धीमे-धीमे चलें।