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तरंगवती उत्कंठा अब मत करो । हे विशालनयनी, मैं तुम्हारा लेशमात्र भी अहित न करूंगा।
तुम देखो, यह शरदऋतु है, नदीप्रवाह वेगीला है, नाव चपल गति से मंद हुए बिना सरक रही है, अनुकूल हवा से धकियाती तेजी से आगे बढ रही
इसलिए हे नयनविशाला सुंदरी, अल्प समय में ही हम श्वेत प्रासादों से सुहावनी, समृद्ध एवं प्रशस्य काकंदीनगरी पहुंच जायेंगे । वहाँ मेरी फूफी रहती है । उसके श्रेष्ठ महालय में तुम निश्चित होकर स्वर्ग की अप्सरा की भाँति रमण करना । तुम्हीं मेरे सुख की खान हो, दुःखनाशिनी हो, मेरे गृहपरिवार की गृहिणी भी तुम्ही हो ।' इस प्रकार प्रियतम ने मुझसे कहा । गांधर्वविवाह
तब उसे चक्रवाक भव के प्रणय का स्मरण हो आया इसलिए कामक्षुब्ध होकर उसने मुझको अपने भुजपिंजर में जकड लिया । प्रियतम के स्पर्श से जो रसपान मैं कर सकी उससे मुझे ऐसी शान्ति हुई, जैसी ग्रीष्म के आतप से संतप्त धरती को वर्षा पाने पर ठंडक होती है। उसने मुझे गाढ आलिंगन दिया परन्तु मेरे स्तन पुष्ट होने के कारण उसके उर में मेरा उर निरंतर एवं सपूर्ण लीन हो न सका।
हमने गांधर्वविधि से गुप्त ववाह किया, जो मानवीय सुखों का सुधा प्रवाह समान था । हम दोनों ने अपने-अपने इष्टदेवों को प्रणाम किया और यौवनस्वर्ग की प्राप्ति समान उसने मेरा पाणिग्रहण किया। विरही जैसे हम दोनों प्रेमप्यास से अतृप्त, देर तक परस्पर एकदूसरे को निरखते रहे। हे गृहस्वामिनी इस प्रकार हमने परितोष एवं मानवीय रतिसुखों का श्रेय प्राप्त किया । नाव भागीरथी में क्रमशः बढ रही थी। उसमें घुमते चक्रवाक जैसे हम मानवचक्रवाक आनंद से रमण करते
रहे ।
प्रातःकाल
इतने में चंद्ररूप बिंदिया से शोभित, ज्योत्स्नारूप अत्यंत महीन श्वेत दूकूल धारिणी, तारों का हार पहन रजनीयुवती बिदा हुई।
चार प्रहररूप तरंगों से जिसका शरीर ढकेलाता था, वह चंद्ररूप हंस