________________
तरंगवती
६३
हे दूती, बहाना बनाकर प्रियमित्रों को यह कहकर विदाय कर दिया कि तुम सब कौमुदीविहार देखने जाओ। मित्रों को छोड आने के बाद मैं प्रियाविरह की व्यथा से कुछ राहत पाने के लिए, तुम्हारे आवास के पास जाकर चित्रपट्ट देखने की सोच ही रहा था कि उसी क्षण मैंने तुम्हें मेरे आवास में आयी हुई देखी और इससे मैं सन्तुष्ट हो गया और मेरा हृदयशोक दूर हो गया । कहो दूती प्रियतमा ने जो तुम्हें कहा हो वह मैं सुनने को आतुर हूँ ।
तब चेटी ने उससे कहा 'उसने मेरे साथ कोई संदेश नहीं भेजा, पर वह स्वयं तुम्हारे पास आई है, इसलिए वही तुमसे विनति करेगी । हे स्वामी, इतने समय तक तो उसने कष्ट से धीरज रखी, तो उस कामातुर का तुम पाणि ग्रहण करना । तरंगों से उछलती गंगा जैसे समुद्र के पास जाती है वैसे हे पुरुषसमुद्र, पूर्वजन्म के अनुराग - नीर से भरी यह तरंगवती कन्यासरिता तुम्हारे पास आई है । ' प्रेमियों का मिलन
उस समय हे गृहस्वामिनी, मुझे भी अत्यंत घबराहट होती थी । परिश्रम के कारण मेरे अंग पसीने से तरबतर थे। एकदम आनंदाश्रु उमड़ आये। मैं काँपती हुई उसके चरणों में गिरने को उद्यत हुई, कि प्रियतम ने विनय से मुझे हाथी की सुंड जैसी उसकी सुखद भुजाओं से उठा ली। गाढ आलिंगन देकर देर तक आँसू बहाने के बाद वह कहने लगा, 'हे मेरी शोकनाशिनी स्वामिनी तुम्हारा स्वागत हो ।'
विकसित कमलसरोवर में से बाहर आई हुई परन्तु कमलशून्य करवाली लक्ष्मी समान मुझे वह हास्य से विकसित सुन्दर मुखकमलवाला अनिमेष नेत्रों से देखता ही रहा ।
मैं भी लज्जानत, अर्धतीरछे मोडे हासपुलकित अंगों से उसे क्षोभपूर्वक तीरछे नेत्रों से कटाक्षपूर्वक देखने लगी थी और जब उसकी दृष्टि मुझ पर पडती तब मैं अपनी दृष्टि नीची ढाल लेती थी । प्रियतम का सब अवस्थांतरों में सुंदर, एवं अतिशय कान्तिपूर्ण रूप देखकर मेरी कामना परिपूर्ण हुई ।
उसके दर्शन से उद्भूत, प्रीतिरूप धान्य को उत्पन्न करनेवाली, परितोषरूपी वृष्टि से मेरा हृदयक्षेत्र सराबोर हुआ ।