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तरंगवती
लज्जा का त्याग करके मेरी माता से यह विनती की : 'यदि येनकेन प्रकारेण श्रेष्ठी की पुत्री तरंगवती की मँगनी आप लोग तय नहीं करेंगे तो पद्मदेव परलोक का मेहमान बन जाएगा।
इसके बाद मुझे पता चला कि यह बात अम्मा से ज्ञात होने पर बापुजी श्रेष्ठी के पास इस काम के लिए गये थे, परन्तु श्रेष्ठी ने मँगनी की बात ठुकरा दी । अम्मा एवं बापुजी दोनों मुझे समझाने लगे, "बेटे ! यह कन्या हमें अप्राप्य है। इसके सिवा और कोई कन्या तुम्हें पसंद आई हो तो उसकी मँगनी की बातचीत हम चालाएँ ।"
प्रणाम कर मैंने उनका आदर किया, भूमि पर ललाट टेक, अंजलिपुट रचकर लज्जा से नीचा मुँह करके विनय जताकर कहा : "आपकी जो आज्ञा होगी, उसका मैं पालन करूँगा । उसके बिना क्या नहीं चल सकता ?" यह कहकर मैंने गुरुजनों को निश्चित किया और इससे वे शोकमुक्त हुए। .
उनके वे वचन सुनने के बाद, हे सुन्दरी, मरने की ठानकर मैं रात होने की प्रतीक्षा करने लगा। उसके समागम की आशा न रही तब मैंने सोचा, 'अधिक लोगों की उपस्थिति में दिन में मृत्यु से भेंटने में मुझे विघ्न आने का संभव है इसलिए सब लोग सो जाने के बाद मैं जो कर सकूँगा वह करूंगा।'
इस प्रकार मन में पक्का निश्चय करके मैं आकार संवरण कर शान्त रहा। जीने के विषय में मैं निःस्पृह बन चुका था, मरने के लिए संनद्ध हुआ था। पिताजी के परिभव एवं अपमान से मेरे वीरोचित अभिमान को ठेस पहुंची थी; और बुजुर्गो के प्रति आदर एवं भक्ति के कारण अब मेरा कर्तव्य एवं धर्म क्या है यह मैं समझ गया था ।
इतने में तुम इस आवास में प्रियतमा के वचनों का - हृदय को उत्सव समान और मेरे जीवन के लिए महामूला अमृत जैसे वचनों का - उपहार लेकर आ पहुँची । तरंगवती के करुण वचन सुनकर मेरा चित्त शोक एवं विषाद से भर आया है और आँखें आँसुओं से छलछला गई हैं इसलिए मैं उसका पत्र साफ साफ पढ़ भी नहीं सकता।
परन्तु मेरे ये वचन तुम उसे कहना : “मुझे तुमने तुम्हारे अनुमरण से मोल