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तरंगवती
वह चक्रवाक यही हो तो कितना अच्छा ! तब तो इस सेठ की पुत्री पर सचमुच बड़ा अनुग्रह हो जाए । शोकसमुद्र में डूब रही, गजरूंढ समान सुंदर वाली उस बाला को इस गुणरत्न के भंडार-सा वर भी प्राप्त हो जाए।"
मैं इस प्रकार जब विचार करती थी, इतने में उस युवक के मित्रों ने उसकी सेवाटहल की । गद्गद् कंठ से करुण आक्रंद कर वह इस प्रकार विलाप करने लगा :
- "रुचिर कुंकम-सा वर्णवाली, स्निग्ध श्यामनयनी, मदनबाण छोड़ बिह्वल करनेवाली, ओ मेरी सुरतप्रिय सहचरी, तुम कहाँ हो ?
___ गंगातरंगों पर विहरने वाली, प्रेममंजूषा-सी मेरी चक्रवाकी ! तुम्हारे सिवा उद्भूत यह उत्कट दुःखदर्द मैं कैसे झेल सकूँगा?
प्रेम एवं गुण की वैजयन्ती-सी, मुझे अनुसरने को, सदा तत्पर मेरा सदा आदर करनेवाली, हा सुतनु ! तुम मेरे कारण क्यों मृत्यु से भेंटी ?" इस प्रकार परिताप करता, प्लावित मुखवाला वह लज्जा को त्याग, दुःख से सर्वांग लोटने लगा।
___ "अरे ! यह क्या ! तुम्हारा चित्त क्या भ्रमित हो गया है ?"इस प्रकार मित्रों ने उसे पूछा और "तुम ऐसा बेढंगा बोलना बंद करो" कहकर डाँट ।
उसने कहा : "मित्रो, मेरा चित्त भ्रमित नहीं हुआ है।" । "तो फिर तुम ऐसा प्रलाप क्यों करते हो ?" उन्होंने पूछा
तब वह बोला, "लो सुनो ! परन्तु मेरी यह गुप्त बात मन में रखना । इस चित्रपट्ट में जो चक्रवाक का प्रेमवृत्तांत आलेखित है वह सब मैंने ही अपने चक्रवाक के पूर्वजन्म में भुगता है।"
___"तुमने यह कैसे भुगता है ?" ऐसा तुम्हारे प्रियतम के मित्रों ने पूछ । अतः उसने कहा, "उस पूर्वजन्म में यह भुगत चुका हूँ इसका मुझे स्मरण हो आया है।" और साथ ही विस्मितवदन सामने बैठे उन मित्रों को, तुमने मुझ से जो कहा था वही अपना अनुभववृत्तांत, उसने रोते-सिसकते, उन्हीं गुणों का वर्णन करते करते कहा ।
"व्याध के शर के प्रहार से उस समय जब मैं निष्प्राण हो गया' तब