________________
तरंगवती झड गया था मदशून्य बना हुआ एक मयूर हारे जुआरी के समान मुझे दिखाई पड़ा । वहाँ के कदलीगृह, ताडगृह, चित्रगृह, लावण्यगृह, धारागृह और केलिगृह मैंने देखे । वह उद्यान सप्तपर्णों के कारण मानो धूमिल लग रहा था, अशोकवृक्षों के कारण मानो जल रहा था, पुष्पित बाणवृक्षों से मानो आगंतुकों को निहार रहा
सप्तपर्ण ___तदनन्तर मैंने वह सर्वांगसुन्दर सप्तपर्ण देखा जिसके अधिकांश पत्ते झड़ गये थे, सर्वांग लदे हुए पुष्पों के बोझ से लचक गया था, पुष्पगुच्छों से जो वह श्वेत ही श्वेत हो चुका था और गुंजती मधुकरमाला से लैस था - मानो नीलोत्पल की माला धारण किये हुए बलदेव ।
वह कमलसरोवर से उडकर आते भ्रमरसमूहों का आश्रयस्थान था। शरदऋतु के प्रारंभ में लगे पुष्पों से छा गया था । सरोवरतट का मुकुट समान था । भ्रमरियों का पीहर था । धरती पर उतर आये भ्रमररूपी लांछनवाले पूर्णचंद्र जैसा था।
हवा के कारण झडकर नीचे के भूभाग को मंडित करती उसकी पेशियों को दहीभात समझकर कौए चारों तरफ से चोंच से कुरेदते थे। मैंने पत्रपुट में लिपय मेरे पुष्ट स्तन के कद का रूपहले खुले कोश-सा उसका एक पुष्पगुच्छ तोडा । .
सभी महिलाएँ फूल चुनने में लगी हुई थी इसलिए कभी वे एकसाथ मिल जाती तो कभी वे बिलग हो जाती थीं । उस वृक्ष को बहुत देर तक निहार लेने पर मेरी दृष्टि कमलसरोवर की ओर गई । भ्रमरबाधा
इतने में मधुमत्त भ्रमर, कमल के लालच में, कमल-सम्पन सुगंधित मेरे मुखकमल के आसपास झपट पड़े। मनोहर झनझनाहट की मधुर, सुखद आवाज के कारण अनंगशर-जैसे भ्रमर गुंजन करते हुए मेरे वदन पर कमल की भ्रांति से उतर आये । भ्रमरियों के झुंड पास आकर मेरे मुख पर आश्रय लेने को तत्पर