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तरंगवती
में लुब्ध मैं अपनी अनिमिष दृष्टि कहीं पर स्थिर नहीं कर पाती । आर्या के असामान्य कांति से दीप्त और मन को प्रसन्नता से भरदेते रूप का तो अप्सराओं को भी मनोरथ होने लगा ! मुझे लगता है कि हमारी दानवृत्ति से आकृष्ट हो साक्षात् भगवती लक्ष्मी ही कमलवन का त्याग कर, साध्वी के वेश में हमारे घर पधारी हैं ।
परंतु लोगों में प्रवर्तमान किंवदन्ती है कि सभी देवता अनिमिष होते हैं, उनकी फूलमाला कभी कुम्हलाती नहीं; उनके वस्त्रों को धूल नहीं लगती । कहा जाता है कि विकुर्वणाशक्ति से देव नानाविध रूप जब धारण करते हैं तब भी उनके नेत्र उन्मेष - निमेषशून्य होते हैं । परंतु इस आर्या के चरण धूलभरे हैं और लोचन भी बन्दोन्मीलित होते हैं । अतः यह देवी नहीं बल्कि मानवी है । अथवा मुझे ऐसी शंकाएँ करना आवश्यक कहाँ ? उसे ही मैं किसी निमित्त से क्यों न पूछकर देखूँ ? यदि हाथी ही आँखों के सामने हो तो फिर उसके चरणचिह्न ढूंढने क्यों जाएँ ?
इस प्रकार मनमें तय करके आर्या के रूपगुण के कौतूहल और विस्मय से पुलकित अंगोंवाली गृहिणीने उसे कहा, 'आओ आर्या, तुम कृपा करो : यदि तुम्हें धर्म का कोई बंधन आडे न आता हो और शुभ प्रवृत्ति हो सकती हो तो मुझे धर्मकथा हो ।
धर्मकथा की महिमा
इस तरह सेठानी ने जब कहा, तब आर्या बोली : 'जगत् के सब जीवों के लिए हितकर ऐसा धर्म कहने में कोई बाधा नहीं होती । अहिंसा के लक्षणवाला धर्म जो सुनता है और जो कहता है, उन दोनों के पाप धुल जाते हैं और दोनों पुण्यभाक् बनते हैं । यदि श्रोता अल्प समय के लिए भी सब बैरभाव छोड दे और धर्मकथा सुनकर नियम ग्रहण करे तो उसका श्रेय कथा कहनेवाले को भी मिलता है | अहिंसा के लक्षणवाला धर्म कहनेवाला अपने आप को एवं सुननेवाले को भवसागर के प्रवाह से तारता है । इसलिए धर्मकथा कहना प्रसंशनीय है । अतः जो कुछ मैं जानती हूँ वह कहूँगी । आप एकाग्र चित्त हो सुनिए ।'
आर्या को टकटकी लगाए देख रही वे सब स्त्रियाँ तब एकदूसरे को ताली दे-देकर कहने लगीं, 'हमारी मनोकामना फली: इस रूपसी आर्या को हम अनिमिष