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तरंगवती
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सुव्रता गणिनी का आगमन : तरंगवती को सौंपना
इसके बाद श्रमणलक्ष्मी से विभूषित, मूर्तिमती क्षमा जैसी एक गुणशील गणिनी उस श्रमण को वंदन करने आई । तप, नियम एवं ज्ञान से परिपूर्ण वह गणिनी आर्या चंदना की शिष्या थी । उसने शास्त्रज्ञ श्रमण और उसके परिवार को वंदन किया । शास्त्रविधि के जानकार उस श्रमण ने गणिनी से कहा, 'है पापशमनी श्रमणी ! यह तुम्हारी शिष्या हो ।'
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उसने यह सुनकर मार्दव गुण जतानेवाला और श्रमणत्व के उपकार समान विनयाचार करके अपनी संमति प्रदर्शित की ।
इसके बाद श्रमण ने मुझसे कहा, 'पाँच महाव्रतधारिणी दृढ व्रतिनी यह सुव्रता गणिनी तुम्हारी प्रवर्तिनी आर्या है, तुम उसको वंदन करो।'
इस आज्ञा के पालन के लिए मैंने मस्तक पर हाथ जोडे, विनय से शीश नवाकर, निर्वाण पहुँचने के लिए आतुर ऐसी मैं उसके पाँव पडी । मन से प्रत्येक विषय को स्पष्ट ग्रहण कर लेती उस श्रमणी ने मुझे इस प्रकार आशिष दी :
'इस उत्तम, परंतु कठिन आचरणवाले श्रमणजीवन को तुम सफलता से पार करो। हम तो केवल तुम्हारे धर्ममार्ग के उपदेशक हैं । तुम यदि उस प्रकार आचरण करोगी, तो मोक्षमार्ग पर ले जानेवाला कल्याण तुम पाओगी ।'
इस प्रकार आशिष-प्रदान हो जाने के बाद उस प्रशस्त श्रमणी को मैंने कहा, "जन्म-मृत्यु के आवागमन की परंपरा के कारणरूप संसार की रहनी से भयभीत मैं तुम्हारी आज्ञा अवश्य मानूँगी ।"
गणिनी के साथ नगरप्रवेश : शास्त्राध्ययन और तपश्चर्या
इसके बाद उत्तम तप एवं संयम के मार्गप्रदर्शक उस श्रमण को मैंने विनय से सकुचाते हुए वंदन किये ।
इसके बाद कामवृत्ति से मुक्त हुए उस सार्थवाहपुत्र को वंदन करके मैंने श्रमणी के साथ नगरी में प्रवेश किया ।
वहाँ उस आर्या के साथ विहार के योग्य अनेक अचित्त प्रदेशयुक्त और स्त्रियों के घूमने-फिरने योग्य ऐसे कोष्ठागार में अनासक्त होकर मैं गई ।