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तरंगवती
११७ समान और जीवनदान देनवाले श्रमण से कहा : "उन दिनों पूर्वभव में जो चक्रवाकयुगल था और इस भव में जिस दंपती को आपने चोरपल्ली से बाहर निकालकर जीवनदान दिया था, वे हम स्वयं ही हैं । जिस प्रकार उस समय आपने हमारे दुःख का अंत किया था उस प्रकार अब पुनः भी आप हमें दुःखमुक्ति प्रदान कीजिए।
जन्ममृत्यु के आवागमन में फँसे रहने के कारण अनेक दुःखपूर्ण और अनित्य ऐसे संसारवास से हम भयभीत हुए हैं ।
विविध तप एवं नियम का पाथेय के साथ जिनवचनों के सरल मार्ग पर चलकर निर्वाण को पहुँचने के लिए हम उत्सुक हुए हैं और आपका अनुसरण करना चाहते हैं।" श्रमणदत्त हितशिक्षा
. हमारी यह बिनति सुनकर सुज्ञ श्रमण ने कहा : 'जो निरंतर शील एवं संयम का पालन करेगा वह सब दुःखों से सत्वर मुक्त हो जाएगा । यदि तुम भी सैकडों जन्म-परंपरा में फँसने की अधोगति के अनुभवों से बचना चाहते हो तो पापकर्म का त्याग और संयम का निरंतर पालन करो ।
मृत्यु अटल होने की वात से हम विदित हैं, परंतु हम यह नहीं जानते कि वह कब आएगी । इसलिए वह तुम्हारे जीवन का अंत कर दे इससे पूर्व तुम धर्माचरण करो यही इष्ट है।
मनुष्य जब कष्ट से श्वास भी ले सकता न हो, प्राण गले में अटके हों, सुध-सान खो बैठा हो तब उस मरणासन्न व्यक्ति के लिए जटिल तपश्चर्या करना अशक्य है।
आयुष्य निरन्तर कम होता रहता है । पाचों इन्द्रियों को सहर्ष फिरा देने वाला ही सुगति के पथ पर विचरण करने योग्य है । सत्कार्य में अनेकों विघ्न आते हैं और इस जग में जीवित परिणामी एवं अनित्य है, इसलिए धर्माचरण के कर्तव्य में श्रद्धा बढाते र ना चाहिए ।
. जिसे मौत दबोच नहीं सकती, जो कदापि दुःख प्राप्त करेगा ही नहीं, वह जीव तप एवं संयम भले ही न करे ।