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तरंगवती
१०७ जलाने के लिए धनुष्य के पीछे के भाग में अरनी बाँध ली।
इसके बाद मैं हस्तिदंत की प्राप्ति के लिए वन्य हाथी की तलाश में चल पडा । जंगल में भटकते-भटकते थक गया और आखिर गंगाकिनारे पहुँचा ।
वहाँ मैंने पहाड़ी और वनविस्तार में रहनेवाला, पर्वत जैसा प्रचंड एक हाथी को नहाकर बाहर निकलते देखा । उस अपूर्व हाथी को देखकर मुझे लगा कि यह हाथी गंगातट के वनमें से आया नहीं लगता । जो हाथी गंगातट के विभिन्न घने वृक्षों के वन का रहनेवाला होता है उसका लक्षण यह है कि उसके बाल स्पर्शकोमल होते हैं । परंतु यह तो दंतविहीन है और किसी अन्य वन से आया लगता है । और व्याधकुल के रक्षण के लिए उसका वध करने में कोई बाध नहीं। अकस्मात् चक्रवाक वध
इस संकल्प के साथ मैंने व्याधकुल की रक्षा के लिए उस हाथी पर प्राणघातक बाण छोड़ा।
उसी क्षण एकाएक कोई कुंकुमवर्ण का चक्रवाक काल के पूर्वनियोग से आकाशमार्ग में उड़ा और बाण से बींध गया ।
. वेदना से उसके पंख निस्पंद हो गये और वह पश्चिम समुद्र में केसरिया रंग की सांध्यबेला में लुढकते कुंकुमवर्ण के सूर्य के समान जलसपाटी पर गिरा।
शरप्रहार से जिसके प्राण निकल गये हैं उस चक्रवाक की अनुगामिनी शोकार्त एवं व्याकुल चक्रवाकी गिरे हुए चक्रवाक के पास आ पहुँची ।
'अरेरे ! धिक्कार है ! मैंने इस मिथुन का संहार किया ! - इस प्रकार मैं व्यथित हो गया और हाथ मलता हुआ वह दृश्य देखता रहा । वह हाथी चला गया और मैंने दया एवं अनुकंपा से प्रेरित हो तुरंत उस पक्षी का वहाँ तट पर अग्निसंस्कार किया । चक्रवाकी और व्याध की अनुमृत्यु
___ वह चक्रवाकी भी अपने सहचर के प्रति अनुराग से प्रेरित होकर उस पर मंडराकर उस चिता की आग में कूद पड़ी और कुछ क्षणों में भस्म हुई। यह उसकी परिणति देख मेरा दुःख अधिक घनिष्ठ हो गया : 'अरेरे ! मैंने इस भले