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तरंगवती
१०३ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव को लक्ष्य करके कर्म का उदय पाँच प्रकार से बताया है।
संसार
___ इस अपरिमित संसार में उस कर्म के फलस्वरूप जीव परिभ्रमण किया करता है। संसार के कारण से भव का उपद्रव होने पर जीव जन्म प्राप्त करता है। जन्म के कारण शरीर, शरीर के कारण इन्द्रिय-विशेष, इन्द्रिय एवं, विषय के कारण मन, मन के कारण विज्ञान, विज्ञान के कारण जीव संवेदन का अनुभव करता है और संवेदन के कारण वह तीव्र शारीरिक एवं मानसिक दुःख भुगतता
वह यह दुःख दूर करने के लिए और सुख पाने के लिए पापकर्म करता है और उस पाप के फलस्वरूप जन्म-मृत्यु के चक्कर में फँसता है । जीव के कर्म उसे क्रमशः नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव की योनि में घुमाते हैं । कर्मानुसार चांडाल, मुष्टिक, पुलिंद, व्याध, शक, यवन, बर्जर आदि विविध मनुष्यजातियों में जीव जन्म प्राप्त करता है।
- इन्द्रियों और शरीर की निर्मलता एवं पूर्णता, परवशता एवं प्रभुत्व, सौभाग्य एवं दुर्भाग्य, संयोग और वियोग, उच्च अथवा नीच गोत्र, आयुष्य और भोगों की वृद्धि अथवा क्षय, अर्थ और अनर्थ - जन्म के कारण अपने कर्मों में ग्रस्त जीव इस प्रकार के तथा अन्य अनेक सुखदुःख अनंत बार भोगता है।
मोक्ष
परती
परन्तु जीवों के मनुष्य-भव की केवल इतनी विशेषता है कि सब दुःखों में से मुक्ति दिलानेवाले मोक्षपद में इसी भव से वे जा सकते हैं।
__ अज्ञान रूप वृक्षों के घने इस संसाररूप महावन में जिनवरों ने ज्ञान और आचरणों को निर्वाण पहुँचने का राजमार्ग समान बताया है।
संयम और योग द्वारा कर्मप्राप्ति रोककर और बचे कर्मों की तप द्वारा शुद्धि करके और क्रमशः सभी कर्मों का क्षय करने के बाद कर्मविशुद्ध हुआ जीव सिद्ध बनता है।
एक समय वह यहाँ से निर्विघ्न परमपद में पहुँचता है; संसार के भय