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तरंगवती
एवं कहीं कहीं कलेउधारिणियाँ हमें दिखाई पड़ते थे । बीच बीच कहीं चबूतरे एवं प्याऊ देखते हुए हम आगे बढ रहे थे ।
वासालिय गाँव में आगमन
बीच के कुछ गाँव यलकर हम धीरे-धीरे वासालिय गाँव पहुँचे । वहाँ एक रमणीय, प्रचंड वटवृक्ष दिखाई पड़ा : विस्तृत शाखाएँ और पर्णघटा से वह सुन्दर लग रहा था मानो मेरुपर्वतशृंग । वह पक्षीसमूह का निवास एवं प्रवासियों के लिए विस्मयकारी था। उसके समीप के रहने वालों ने हमको यह बात बताई :
'कहा जाता है कि निर्ग्रथ धर्मतीर्थ के उपदेष्टा, शील एवं संवर से सज्ज वर्धमानजिन अपनी छद्मस्थ अवस्था में यहाँ ठहरे थे। वर्षाकाल में महावीर ने यहाँ बसेरा किया था इसलिए यहाँ यह 'वासालिय' नामक गाँव बसा । देव, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, गांधर्व एवं विद्याधरोंने जिसको वंदन किये हैं ऐसा यह वटवृक्ष भी जिनवर की भक्ति के कारण पूजनीय हुआ है ।'
उनकी यह बात सुनकर हम दोनों वाहन से उतरे । हमने अत्यंत सहर्ष एवं उत्सुक नेत्रों से रोमांचित होकर उस वटवृक्ष को प्रत्यक्ष जिनवर माना और श्रेष्ठ भक्तिभाव से मस्तक नवाकर उसके मूल के समीप जाकर दंडवत प्रणाम किया।
हाथ जोड़कर मैं बोली, 'हे तरुवर, तुम धन्य हो, कृतार्थ हो कि तुम्हारी छाया में महावीरजिन रहे थे।' हमने वट की पूजा की, तीन प्रदक्षिणाएँ की और पुष्टि एवं तुष्टि धारण करके हम वाहन में बैठे। वर्धमानजिन की इस निसीहिया (अल्पावधि वासस्थान) के दर्शन एवं वंदन करने पर मुझमें हर्ष एवं संवेग ऐसे जागे कि मैं अपने को कृतार्थ मानने लगी ।
उस समय मेरे प्रियतम के संग मानो पीहर के सुखचैन लूटने का मुझे अनुभव हुआ । इस प्रकार हम आनंदित होते हुए आगे बढे और एकाकीहस्तिग्राम. एवं कालीग्राम से गुजर कर शाखांजनी नगरी में प्रवेश किया ।
उसकी आबादी घनी थी । भवन बादलों का मार्ग रोके ऐसे उँचे थे । वहाँ भी हमने सिवान में रहते एक मित्र के घर ठहरे। वह घर कैलास के शिखर जैसा ऊँचा था मानो नगरी का मानदंड हो । वहाँ स्नान, भोजन, उत्तम शय्या आदि सुविधाओं से हमारा आदर-सत्कार किया गया । हमारे साथ के सब लोगों को