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________________ दर्शनपद पूजा ॥ ६॥ जिनवर भाषित शुद्ध नय, तत्त्व तरणी परतीत। ते सम्यग्दर्शन सदा, आदरीये शुभ रीत ॥ शम संवेगादिक गुणा, क्षय उपशम जे आवे रे॥ दर्शन तेहिज आतमा, शुहोय नाम धरावे रे ॥ वीर० ॥ ज्ञानपद पूजा ॥ ७ ॥ सप्तम पद श्री ज्ञान नु, सिद्धचक्र पद मांहि । आराधीजे शुभ मने, दिन दिन अधिक उच्छाहिं । ज्ञानावरणीय जे कर्म छे, क्षय उपशम तस थाय रे। तो हुए एहिज आतमा, ज्ञान प्रबोधता जाय रे ॥ वीर० ॥ चारित्रपद पूजा ॥ ८ ॥ अष्टम पद चारित्र नु, पूजो धरी उम्मेद । पूजत अनुभव रस मिले, पातिक होय उच्छेद ॥ जारण चारित्र ते आतमा, निज स्वभाव मां रमतो रे। लेश्या शुद्ध अलंकर्यो, मोह वने नवी भमतो रे ॥वीर० ॥ तपपद पूजा ॥ ६ ॥ कर्म काष्ठ प्रतिजालवा, परतिख अग्नि समान । ते तप पद पूजो सदा, निर्मल धरिए ध्यान । इच्छारोधे संवरी, परिणति समता योगे रे । तप ते एहिज आतमा, वर्ते निज गुरण भोगे रे । वीर० ॥ आगम नोपागम तरणो, भाव ते जाणो साचो रे । प्रातम भावे थिर हो जो, पर भावे मत राचो रे ।। वीर० ।। ( 60 )
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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