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श्रेणिक राय गौतम ने पूछे, स्वामि ए तप केणे कोधोजी । नव प्रांबिल तप विधिशु करतां, वंछित फल केणे लोधोजी ।। मधुरी ध्वनि बोल्या श्री गौतम, सांभलो श्रेणिकराय वयणाजी। रोग गयो ने संपदा पाम्या, श्री श्रीपाल ने मयणाजी ।।३।। रुमझुम करती पांये ने उर, दीसे देवी रूपालीजी । नाम चक्केसरी ने सिद्धाई, आदि जिन वीर रखवालोजी । विघ्न कोड हरे सह संघना, जे सेवे एहना पायजी ।। भाणविजय कवि सेवक नय कहे, सानिध्य करजो मोरी मांयजी ।४।
स्तुति २ प्रह उठी वंदू, सिद्धचक्र सदाय । जपिये नवपद नो, जाप सदा सुखदाय ।। विधि पूर्वक ए तप, जे करे थई उजमाल । ते सवि सुख पामें, जेम मयणा श्रीपाल ।। १ ।। मालवपति पुत्री, मयणा अति गुणवंत । तस कर्म संयोगे, कोढी मलियो कंत ।। गुरु वयणे तेणें, आराध्यु तप एह । सुख संपद वरिया, तरिया भव जल तेह ॥ २ ।। प्रांबिल ने उपवास, छट्ट वली अट्टम । दस अट्ठाई पंदर मासी, छमासी विशेष ।। इत्यादिक तप बह, सह मांहि सिरदार । जे भवियण करशे, ते तरसे संसार ।। ३ ।। तप सानिध्य करशे, श्री विमलेश्वर यक्ष । सहु संघना संकट, चूरे थई प्रत्यक्ष ।। पुंडरिक गणधर, कनक विजय बुद्ध शिष्य । बुद्ध दर्श विजय कहे, पहोंचे सयल जगीश ।। ४ ।।
परिशिष्ट-4
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