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________________ ए सरीखो जग को नहीं, आराध्यो हो शिवपद दातार के ।। नव०॥ ॥१॥ नव अोली प्रांबिल तणी, भवि करिए हो मनने उलास के। भूमि शयन ब्रह्मव्रत धरो, नित सुरिगये हो श्रीपाल नो रास के । ।। नव० ।। २ ।। नव विधि पूर्वक तप करि, उजमणो हो कीजे विस्तार के । साहमी सामिणी पोषिए, जेम लहिये हो भव निस्तार के ।। नव० ॥३॥ नरसुख सुर सुख पामिये, वलि पामे हो भव भव जिन धर्म के । अनुक्रमे शिव पद पण लहे, जिहां मोटा हो अक्षय सुख शर्म के ।। नव० ।। ४ ।। सांभली भवियण दिल धरो, सुखदायी हो नवपद अधिकार के । वचन विनोद जिनेन्द्रनो, मुज हो जो भव भव आधार के ।। नव० ।। ५ ।। स्तवन ५ नवपद ध्यान सदा जयकारी ।। ए अांकडी ।। अरिहंत सिद्ध प्राचारज पाठक, साधु देखो गुण रूप उदारी ।। नव० ।। १।। दर्शन ज्ञान चारित्र है उत्तम, तप दोय भेदे हृदय विचारी ।। नव०॥ ॥ २ ॥ मंत्र जडी और तंत्र घणेरा, उन सब को हम दूर विसारी ।। नव० ।। ३ ।। बहोत जीव भव जल से तारे, गुण गावत है बहु नर नारी ।। नव० ।। ४ ।। श्री जिन भक्त मोहन मुनि वंदन, दिनदिन चढते हरख अपारी ।। नव० ।। ५ ।। स्तवन ६ सब दुःख दूर होते हैं, नवपद के ध्याने से । होते हैं मंगल माल भी, नवपद के ध्याने से ।। १ ।। श्रीपाल मैना सुदरी ने, ध्यान जब किया। दारिद्र दूर सब हुए, नवपद के ध्याने से ।। २ ।। असहाय को भी सहाय देता, मंत्र ये सदा । होती विजय है सर्वदा, नवपद के ध्याने से ।। ३ ।। ( 46 )
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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