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श्रात्मा ही पुण्य-पाप को जान सकता है और अपनी आत्मा को निर्मल कर सकता है । श्रीदशवैकालिक सूत्र में भी कहा है कि 'पढमं नाणं तहो दया' प्रथम ज्ञान और पीछे दया । इससे समझना चाहिये कि सबसे पहले ज्ञान है और बाद में दया याने हिंसा है ।
आत्मा के सहभावी गुण ज्ञानादि हैं। जिस तरह अग्नि में उष्णता गुण है, कपास में श्वेतता गुण है उस तरह आत्मा में ज्ञानादि गुण हैं । वे गुण कभी भी आत्मा से अलग नहीं पड़ सकते हैं । ज्ञानादि गुण प्रात्मा के ही होने पर भी सांसारिक पौद्गलिक पराधीनता से आत्मा की सही रूप में पहिचान न समझ कर पौद्गलिक विषयों और कषायों की पुष्टि में अभिवृद्धि करने वाले होने से अज्ञान रूप कहे जाते हैं ।
मोक्ष का शाश्वत सुख पाने के लिये सम्यग्दर्शन -ज्ञानचारित्र रूप त्रिवेणी संगम सर्वोत्कृष्ट साधन है । इस साधन में सकल क्रिया का मूल सम्यग्दर्शन रूप श्रद्धा है और श्रद्धा का मूल सम्यग्ज्ञान माना है ।
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श्रीसिद्धचक्र के नवपद पैकी सातवाँ पद सम्यग्ज्ञान है । वस्तु का सम्यग् यानी यथार्थ अर्थात् जैसा हो वैसा स्वरूप जो जनाता है वही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । जो ज्ञान आत्मा को मोक्षमार्ग की साधना के लिये उत्साही
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन- १६७