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नवपद ओलीजी में रूखा भोजन लेने से शरीर के रोग नष्ट हो जाते कंचनवर्णी हो जाती है- अर्थात् 'धर्म-पात्र'
हैं और काया हो जाती है ।
आचार्यश्री - ऐसे अनुपम ग्रन्थ रचकर धर्म-जागृति- यज्ञ में महत्त्वपूर्ण योग दे रहे हैं । उनकी साहित्य - साधना सराहनीय है ।
गुजराती - भाषा-भाषी होते हुए भी आपश्री राष्ट्रभाषा हिन्दी में ग्रन्थ रचते हैं - इसका उद्देश्य यह है कि हिन्दी समस्त देश में तथा विदेश में भी बहुसंख्यक लोगों द्वारा पढ़ी और समझी जाती है । हिन्दी भाषा में साहित्य-सृजन लोकमंगल - भावना का परिचायक है | वैसे प्राचार्य श्री संस्कृत, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं के अधिकारी विवान हैं । संस्कृत और गुर्जर भाषाओं में आपने अनेक पुस्तकें लिखीं हैं जो जनसाधारण और विवत् समाज में अत्यन्त लोकप्रिय हुई हैं । परन्तु हिन्दी भाषा में आपकी पुस्तकरचना की पृष्ठभूमि में लोक-कल्याण की मंगल भावना ही है ।
पू. आचार्यश्री का निश्छल व्यक्तित्व, सौम्य - शान्त मुद्रा, मृदुल सरलता और मंत्री - प्रमोद - करुणा और माध्यस्थ भाव - स्नात लोचन - पुण्डरीक देखकर यह सहज अनुभूति होती है कि 'सन्तदर्शन प्रभु-दर्शन' है । जैसी जीवन की निर्मलता है-वैसी ही उनकी निर्मल और सरल शैली है । 'श्री सिद्धचक्र - नवपद-स्वरूप दर्शन' पुस्तक की भाषा-शैली सरल, सहज और बोधगम्य है । शैली के तीनों गुण अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के दर्शन यथास्थान होते हैं। भाषा सधुक्कड़ी है जिसे सन्तजन भाव - सुगमता के लिए प्रयुक्त करते हैं । इसमें उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, ब्रज, संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के प्रचलित शब्दों का 'मरिण - काञ्चन' योग प्रियंकर है |
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