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कहते हैं "ये नवपद उत्तम तत्त्वरूप हैं । इतना ही नहीं ये जिनशासन के सर्वस्व हैं । इनका बहुमान, भक्ति और विधि पूर्वक आराधन सर्व वाञ्छित अर्थात् ऐहिक पारलौकिक सुख और परम्परा से मोक्षफल की प्राप्ति कराने वाला अद्वितीय और बेजोड़ साधन है ।"
अतः नवपद
श्री नवपद की आराधना सुदेव-गुरु-धर्म की आराधना है । श्री अरिहन्त - सिद्ध प्राचार्य - उपाध्याय-साधु पंच परमेष्ठी सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप - चार गुरणों से अलंकृत हैं । की आराधना से आराधक इन दिव्य गुणों से विभूषित हो जाता है । जैसे पू.लों को हाथ में लेने से उनकी सुगन्ध हाथ में आ जाती है, जैसे शीतल जल के संयोग से शीतलता का अनुभव होता है, जैसे मिष्टान्न से मधुरता को प्रतीति होती है, वैसे ही गुरणीजनों की सेवा-अर्चना से गुण प्राप्त होते हैं । अतः नवपदजी की आराधना सर्व मंगलविधायिनी है ।
पू. आचार्यश्री ने गणितशास्त्र के अनुसार यह सिद्ध किया है कि नौ का अंक कभी खंडित नहीं होता । यह अंक प्रखंड है, इस तरह श्री सिद्धचक्र भगवन्त के नवपद भी प्रखण्ड हैं । उनकी सम्यग् आराधना कर आराधक भव्यात्मा सकल कर्म का क्षय करके प्रखण्ड, अविचल, शाश्वत मोक्षसुख को प्राप्त कर सकता है ।
'पंच सूत्र' में कहा गया है कि शुद्धधर्म की प्राप्ति का उपाय पाप कर्म का नाश है । पाप कर्म का नाश अरिहन्तादि की शरण होता है । अत श्री सिद्धचक्र- नवपद की शरण प्रघविमोचिनी और कल्याणकारिणी है ।
मैत्री भाव के आद्य उपदेशक श्री अरिहन्त परमात्मा हैं | उसको सिद्ध करने वाले सिद्ध परमात्मा हैं, उसे जीवन में नख
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