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________________ यहां सिद्ध का जीव अशरीर-शरीर बिना का है, केवल जीव रूप है, ज्ञान और दर्शन से युक्त है, साकार उपयोग-ज्ञान और निराकार उपयोग-दर्शन द्वारा लक्षित है, वे तीन जगत् के केवल ज्ञान से जानते हैं और केवल दर्शन से देखते हैं। (११६-११७) पूर्वभवाकारस्यान्यथा व्यवस्थापनाच्छु पिरपूर्त्या । संस्थानमनित्थंस्थं स्यादेषामनियताकारम् ॥१८॥ केनचिद लौकिकेन स्थितं प्रकारेण निगदि तुम शक्यम् । अतएव व्यपदेशो नैषां दीर्घादि गुण वचनैः ॥११६॥ खोखलापन पूर्ण करने से इनका पूर्व जन्म का आकार बदल जाता है, उनका भिन्न प्रकार का अनिश्चय आकृति वाला 'संस्थान' होता है। यह संस्थान कोई ऐसा अलौकिक प्रकार से होता है कि वह वाणी द्वारा वर्णन नहीं कर सकते हैं और इससे ही उनका दीर्घ-हस्व आदि गुणवाचक शब्दों द्वारा वर्णन नहीं कर सकते हैं । (११६-११६) ___आगम में भी कहा है कि "तथाहुः- से न दीहे। से न हस्से। से न वट्टे। . इत्यादि" अर्थात् यह सिद्ध का जीव दीर्घ नही है, ह्रस्व नहीं है, वृद्धि भी प्राप्त नहीं करता। इत्यादि। .ननु- . संस्थानं ह्वाकारः स कथममूर्तस्य भवति सिद्धस्य । अत्रोच्यते- परिणाम वत्यमूर्तेऽप्यसौ भवेत्कुम्भनभ सीव ॥१२०॥ पूर्वभव भावि देहाकारमपेक्ष्येव सिद्ध जीवस्य । संस्थानं स्यादौपाधिकमेव न वास्तवं किंचित् ॥१२१॥ • यहां कोई शंका करता है कि- संस्थान अर्थात् आकार यह अमूर्त- अशरीर ऐसा सिद्ध के जीव को कैसे हो सकता है ? इसका समाधान करते हैं कि- एक कुंभ में के आकार में - घटाकाश में जैसे आकार होता है वैसे परिणामी अमूर्त में भी आकार संभव है। पूर्व जन्म के देहाकार अपेक्षी को ही सिद्ध के जीवों का औपाधिक संस्थान होता है। वास्तविक कुछ नहीं होता। (१२०-१२१) तथाहुरावश्यक नियुक्ति कृत : ओगाहणाइ सिद्धा भवति भागेण हुंति परिहीणा । संठाणमणित्थं त्थं जरामरण विप्पमुक्काणं ।। उत्ताणओ व पासिल्लओ व अहवा निसन्नओ चेव । जो जइ करेइ कालं सो तह उववज्जए सिद्धो ॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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