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(४२) .. तत्रास्तिकायः सकल स्वप्रदेशात्मको भवेत् । कियन्मात्रांश रूपाश्च तस्य देशाः प्रकीर्तिताः ॥५०॥
अपना सर्व प्रदेश रूप अर्थात् स्कंध (सम्पूर्ण पदार्थ) यह अस्तिकाय है और अल्प प्रदेश रूप (कुछ विभाग) यह देश कहलाता है। (५०)
कहा है कि
"स्कन्दन्ति शुष्यन्ति पुद्गल विचनेन धीयन्ते च पुष्यन्ते पुद्गल चटनेनेति स्कन्धाः। पृषोदरादयः इति रूप निष्पत्तिः। इति प्रज्ञापना वृत्तौ व्युत्पादितत्वादेते स्कन्धव्यपदेशं नार्हन्ति। अतएव सूत्रे प्रायः धम्मस्थिकाए धम्मस्थिकायस्स देसे इत्याद्येव श्रूयते ॥"
नव तत्त्वावचूरौ तु चतुर्दश रज्वात्मके लोके सकलोऽपि यो । धर्मास्तिकायः स सर्वः स्कन्धः कथ्यते इत्युक्तमिति ज्ञेयम् ॥
'पुद्गल का स्वभाव पूरन-गलन-सड़न है, इससे परमाणु घटने-बढ़ने से सूख जाना वह पोषन स्कंध कहलाता है। प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में इस तरह कहा है 'स्कंध' शब्द की व्युत्पत्ति 'पृषोदयादय' यह व्याकरण सूत्र के आधार पर की है। इस तरह व्युत्पति करने से यह 'स्कंध' नाम कहलाने के योग्य है । अनन्त पुद्गल परमाणुओं के छोटे समूह को स्कन्ध (सम्पूर्ण पदार्थ) कहते हैं । इससे ही सूत्र में प्रायः धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय के देश इत्यादि पाठ ही दिखते हैं । यद्यपि 'नव तत्त्व' की अवचरी टीका में तो 'चौदह राजलोक में जितने भी धर्मास्तिकाय हैं उतने सारे 'स्कंध' कहलाते है।' इस तरह कहा है।
निर्विभागा विभागाश्च प्रदेशा इत्युदाहृताः । ते चानन्तास्तृतीयस्या संख्येया आद्ययोर्द्वयोः ॥५१॥
पूर्व में अस्तिकाय और देश के विषय में कहा गया है । अब प्रदेश के विषय में कहते हैं - जिसके कभी विभाग न हो सके उस सूक्ष्म विभाग को प्रदेश कहते है। ऐसे प्रदेश आकाशास्तिकाय के अनन्त हैं और धर्माधर्मास्तिकाय के असंख्यात हैं । (५१.)
अनन्तैश्चागुरु लघु पर्यायैः संश्रिता इमे । त्रयोऽपि यदमूर्तेषु संभवन्त्येत एव हि ॥५२॥
तथा ये तीनों धर्म, अधर्म, आकाश के अस्तिकाय; अनन्त अगुरु, लघु, पर्यायों से संश्रित हैं क्योंकि अमूर्तों में वही संभव है । (५२)