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________________ (३८) . आलम्बन में तथा चित्त की स्थिरता में भी यह अधर्मास्तिकाय ही हेतुभूत है। गति और स्थिति का परिणाम होने पर भी यह धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों जीव और पुद्गल के सहायक हैं । यदि इस तरह न हो तो जीव और पुद्गल गति में हों तो हमेशा गति करते ही रहें और स्थिर रहें तो सदा ही स्थिर रहें । (२१-२४) भवेदभ्रास्ति कायस्तु लोकालोकभिदा द्विधा । ' लोकाकाशास्ति कायः स्यात्तत्रासंख्य प्रदेशकः ॥२५॥ स भाव्य लोकाकाशेन परीत्ततिगरीयसा । .. गोलकं मध्य शुषिरं महान्तमनु कुर्वता ॥२६॥ आकाशास्तिकाय १- लोकाकाश और २- अलोकाकाश ये दो भेद हैं । इसमें लोकाकाश असंख्य प्रदेशों का है और इसके अन्दर बिल्कुल पोला एक बड़ा गोला होता है । इसके चारों तरफ आया अत्यन्त विस्तृत अलोकाकाश द्वारा शोभ रहा है। (२५-२६) 'भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक के ग्यारहवें उद्देश में गौतम के प्रश्न के उत्तर में श्री वीर परमात्मा ने कहा है कि- 'हे गौतम ! अलोकाकाश पोला गोलाकर समान है।' असौ च धर्माधर्माभ्यां स्वतुल्याभ्यां सदान्वितः । भूपाल इव मन्त्रिभ्यां विभर्ति सकलं जगत् ॥२७॥ आकाशास्तिकाय और अपने समान ही धर्मास्तिकाय और अर्धास्तिकाय की सहायता द्वारा अखिल जगत को धारण कर रखा है, जैसे एक राजा ने अपने दो मन्त्रियों की सहायता से जगत को धारण कर रखा हो वैसे ही आकाशास्तिकाय ने धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के द्वारा जगत को धारण रखा है। (२७) अलोकाभ्रं तु धर्माधैर्भावैः पंचभिरुज्झितम् । अनेनैव विशेषण लोकाभ्रात् पृथगीरितम् ॥२८॥ अलोकाकाश तो धर्मास्तिकाय आदि पांचों द्रव्य से रहित है और इसी भेद के कारण लोकाकाश से भिन्न है। (२८) अनन्तस्याप्यस्य पूज्यैर्महत्तायां निदर्शनम् । असद् भाव स्थापनया पंचमांगे प्रकीर्तितम् ॥२६॥ . इस तरह अनन्त अलोकाकाश की विशालता के ऊपर भगवान् महावीर प्रभु ने पांचवें अंग-भगवती सूत्र में काल्पनिक दृष्टान्त कहा है । (२६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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