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________________ ( ३६ ) तत्र प्रथमतो द्रव्यलोकः किंचिद्वितन्यते । मया श्रीकीर्तिविजय प्रसाद प्राप्त बुद्धिना ॥१०॥ श्री मान्यवर्य उपाध्याय वर्य कीर्ति विजय गुरु महाराज की परम कृपा से मैं बुद्धिमान बना हुआ अब प्रथमतः द्रव्यलोक सम्बन्धी कुछ अल्पमात्र विवेचन करता हूँ। (१०) धर्मास्तिकाया धर्मास्तिकायावाकाश एव च ।. जीव पुद्गल कालाश्च षड् द्रव्याणि जिनागमे ॥ ११ ॥ धर्माधर्माभ्रजीवाख्याः पुद्गलेन समन्विताः । पंचामी अस्तिकायाः स्युः प्रदेश प्रकरात्मकाः ॥१२॥ · अनागत स्यानुपत्तेरुत्पन्नस्य च नाशतः । प्रदेश प्रचया भावात् काले नैवास्ति कायता ॥१३॥ जिन आगम में धर्मास्ति काय, अधर्मास्ति काय, आकाशास्ति काय, जीवस्ति काय, पुद्गलास्तिकाय और काल - ये छ: गिने है । उसमें धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल - इन पांच का विस्तार बहुत प्रदेश होने से हमने इसे 'अस्तिकाय ' कहा है और जो काल है वह अस्तिकाय नहीं है क्योंकि अनागत- भविष्य काल को उत्पत्ति न होने से, और उत्पन्न का नाश होने से इस काल को प्रदेश समूह नहीं है। (११ से १३) विना जीवेन पंचामी अजीवा कथिताः श्रुते । पुद्गलेन विना चामी जिनैरुक्तां अरूपिणः ॥१४॥ जीव बिना के पांच द्रव्य को जिन शास्त्र में अजीव कहां है और पुद्गल बिना के पांचों को 'अरूपी' कहा है । (१४) धर्मास्तिकायं तत्राह पंचधा परमेश्वरः । द्रव्यतः क्षेत्रतः काल भावाभ्यां गुणतस्तथा ॥ १५॥ द्रव्यतो द्रव्यमेकं स्यात् क्षेत्रतो लोक सम्मितः । कालतः शाश्वतो यस्माद भूद् भाव्यस्ति चानिशम् ॥ १६ ॥ वर्णरूप रसैर्गंधस्पर्शे : शून्यश्च भावतः । गत्युपष्टम्भ धर्मश्च गुणतः स प्रकीर्तितः ॥१७॥ स्वभावतः संचरतां लोकेऽस्मिन् पुद्गलात्मनाम् । पानीयमिव मीनानां साहाय्यं कुरुते ह्यसौ ॥१८॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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