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________________ (५६५) 44. " इति उपरम्यतो । विस्तरात्तदर्थिना रत्नाकरावतारिकादयो विलोक्या: । " " इतना ही कहना युक्त है । इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक जानना हो तो रत्ना - करावतारिका आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए ।" इति पुद्गल तत्वमागमे, गदितं यत्किल तत्व दर्शिभिः । तदनूदितमत्र मद् गिरा गुहयेव प्रतिशब्दितस्पृशा ॥१५७॥ तत्वदर्शी महापुरुषों ने आगम में पुद्गल तत्व के ऊपर जो विवेचन किया है, उस विवेचन के अनुसार ही मैंने, शब्द से शब्द की प्रतिध्वनि करने वाली गुफा के समान वाणी में सब कहा है । (१५७) विश्वाश्चर्यदकीर्ति कीर्ति विजय श्रीवाच केन्द्रान्तिषद्राज श्री तनयोऽनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किलं तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे । सर्गे निर्गलितार्थ सार्थ सुभगः पूर्णोपमेकादशः ॥१५८॥ । इति एकादशः सर्गः । इति श्री लोक प्रकाशस्यायं प्रथमो द्रव्यलोक प्रकाशः समाप्तः । तीन लोक को आश्चर्य चकित करने वाली कीर्ति के स्वामी श्रीमद् कीर्ति विज़य जी उपाध्याय के अन्तेवासी तथा पिता तेजपाल सेठ और माता राजश्री के कुलदीपक श्री विनय विजय ने जो यह जगत् के निश्चित तत्व को दीपक के समान प्रकाश में लाने वाले इस काव्य ग्रन्थ की रचना की है । इसके अन्दर से निकलता अनेक उत्तम अर्थ वाला ग्यारहवां सर्ग सम्पूर्ण हुआ । (१५८) ॥ ग्यारहवां सर्ग समाप्त ॥ इस प्रकार श्री लोक प्रकाश का प्रथम विभाग " द्रव्य लोक प्रकाश " सम्पूर्ण हुआ ।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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