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________________ (५६६) उक्ता द्वयशीतिरित्येताः पाप प्रकृतयो जिनैः । न भूयान् विस्तरश्चात्र क्रियते विस्तृतेर्भिया ॥२६६॥ कुलकं । जीव की बयासी पाप प्रकृति कहते हैं - पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म, नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म, नीच गोत्र, मिथ्यात्व, असाता वेदनीयत्व, नरक गति, नरक की आनुपूर्वी, नरक आयुष्य, तिर्यंच गति, तिर्यंच की आनुपूर्वी, पच्चीस कषाय, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की जाति, असद्विहायो गति, अवकृष्ट, वर्णादिक, उपघात नामकर्म, प्रथम के अलावा शेष पांच संस्थान और पांच . संघयण, स्थावर, सूक्ष्म,अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय और अपयश इतने मिलाकर दस नामकर्म तथा पांच अन्तराय कर्म हैं । बहुत विस्तार । हो जाता है, इसलिए विशेष न कहकर इतना ही कहा जाता है । (२६५ से २६६) एतेषु कर्मस्वष्टासु भवत्याद्य चतुष्टयम् । घातिसंज्ञं जीव सक्तज्ञानादि गुणघातकृत् ॥३००॥ अन्यं चतुष्टयं च स्यात् भवोपग्राहि संज्ञकम् । . छद्मस्थानां तथा सर्वविरामप्येतदा भवम् ॥३०१॥ आठ कर्म कहे हैं। उनमें प्रथम चार घाति कर्म कहलाते हैं, क्योंकि वे जीव के ज्ञानादि गुणों का घात करने वाले हैं जो दूसरे चार हैं वे भवोपग्राही कहलाते हैं क्योंकि ये छद्मस्थ को और सर्वज्ञों को भी भव-जन्म पर्यन्त होते हैं । (३०१).. पारावारानुकारादिति जिन समयात् भूरिसाराद पारात् । उच्चित्योच्चित्य मुक्ता इव नव सुषमा युक्तिपंक्तीरनेकाः। क्लृप्ता जीवस्वरूप प्रकरण रचमा योरुमुक्तावलीन । सोत्कंठ कंठपीठे कुरुत कृतधियस्तां चिदुबोध सिद्धयै ॥३०२॥ इस तरह से श्री जिनेश्वर के अपार-सार युक्त समुद्र समान सिद्धान्त में से अनेक नयी सुषम युक्तियों के मुक्ताफल के समान वाणी से इस जीव स्वरूप के प्रकरण की रचना रूप माला तैयार की है । इसे बुद्धिमान पुरुष ज्ञान के प्रकाशन की सिद्धि के लिए उत्कंठा सहित कंठ में धारण करो । (३०२) विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रातिष - द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः । काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे, सर्गोयं दशमः सुधारस समः पूर्ण सुखेनासमः ॥३०३॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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