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________________ (५५६) उक्तं च प्रज्ञापना वृत्तौअणुवकए वि वहूणं जो हु पिओ तस्स सुभग नामुदओ। उवगार कारगो वि हुन रुच्चए दुभगस्सुदए ॥२३३॥ सुभगुदये वि हु कोइ किंची आसज्ज दुभग्गो जइ वि। जायइ तद्दो साओ जहा अभव्वाण तित्थयरो ॥२३४॥ इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना वृत्ति में भी कथन मिलता है- एक मनुष्य किसी पर उपकार नहीं करता फिर भी सुभग नामकर्म के उदय से बहुतों का प्रिय होता. है और दूसरा उपकार करता है फिर भी दुर्भाग्य नामकर्म के उदय से किसी का प्रिय नहीं होता । यदि एक मनुष्य को सुभग नामकर्म का उदय होने पर भी वह : अमुक मनुष्यों को अरुचिकर लगता है तो उसमें दोष सामने वाले का समझना । . जैसे कि तीर्थंकर भगवान् के वचन अभव्य को रुचिकर नहीं होता है । उसमें दोष । किस का है? यह अभव्य जीव का ही है । (२३३-२३४) दुष्टानिष्टस्वरो जन्तुर्भवेत् दुःस्वर नामतः । युक्तवाद्यप्यनादेय वाक्योऽनादेय नामतः ॥२३५॥ १८- प्राणी दुष्ट-अनिष्ट स्वर वाला होता है वह दुःस्वर नामकर्म के उदय से होता है । १६- युक्त बोलने वालों का वचन भी स्वीकार नहीं होता उसमें उसका अनादेय नामकर्म ही कारणभूत समझना । (२३५.) अयशोऽकीर्ति भाग्जीवोऽयशो नामोदयात् भवेत् ।' त्रसस्थावर दशके एवमुक्ते स्वरूपतः ॥२३६॥ . २०- जिसे अपयश और अपकीर्ति ही होती है उस प्राणी का अयश नामकर्म समझना । इस तरह त्रस आदि दस और स्थावर आदि दस नामकर्म का प्रयोजन कहा है । (२३६) पराघातोदयात् प्राणी परेषां बलिनामपि । स्यात् दुद्धर्षःसदुच्छ्वासलब्धिश्चोच्छ्वासनामतः॥२३७॥ अब पराघात आदि आठ नामकर्मों के प्रयोजन के विषय में कहते हैं२१- एक प्राणी के सामने अन्य बलवान प्राणी भी खड़ा नहीं रह सकता है, यह इसका पराघात नामकर्म समझना । २२- एक मनुष्य का उत्तम उच्छ्वास हो वह उसके उच्छ्वास नामकर्म के कारण होता है । (२३७)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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