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(५४६) चित्रकृत्सदृशं चैतत् विचित्राणि सृजेद्यथा । चित्राण्येष मिथोऽतुल्यान्येवं नामापि देहिनः ॥१६६॥
वह एक चित्रकार के समान है । जैसे कोई चित्रकार परस्पर अतुल्य अर्थात् एक दूसरे से मिलते न हों ऐसे विचित्र चित्र बनाये, ऐसे जाति का यह नाम कर्म है । (१६६)
द्विचत्वारिंशद्विधं तत् स्थूलभेदविवक्षया । . स्याद्वा त्रिनवति विधं त्रियुक् शत विधं तु वा ॥१६७॥ सप्तषष्टि विधं वा स्याद्यथा क्रममथोच्यते । विकल्पानां चतुर्णामप्येषां विस्तृति रागमात् ॥१६८॥
इस नाम कर्म के स्थूल भेदों की गिनती करें तो बयालीस प्रकार का हैं. अथवा तिरानवें प्रकार का या एक सौ तीन अथवा सड़सठ भेद होते हैं । ये चार. विकल्प हैं । वह अब आगम में कहे अनुसार अनुक्रम से ही विस्तारपूर्वक कहते हैं । (१६७-१६८)
गतिर्जा तिर्वपुश्चैवोपांगं बन्धनमेव च । । संघातनं सहननं संस्थानं वर्ण एव च ॥१६६॥ गन्धो रसश्च स्पर्शश्चानुपूर्वी च नभो गतिः । .
चतुर्दशैता निर्दिष्टाः पिण्ड प्रकृतयो जिनैः ॥१७०५
जिनेश्वर देव ने चौदह पिंड प्रकृति कही हैं । वह इस प्रकार-गति, जाति, शरीर, उपांग, बंधन, संघातन, संहनन, संस्थान, वर्ण, गंध, रस आनुपूर्वी और विहायोगति । (१६६-१७०)
स्युः प्रत्येक प्रकृत्योऽष्टाविंशतिरिमाः पुनः । त्रस स्थावर दशके पराघातादि चाष्टकम् ॥१७१॥
तथा अट्ठाईस प्रत्येक प्रकृतियां कही हैं । त्रस आदि दस, स्थावर आदि दस और पराघात आदि आठ हैं । (१७१)
त्रस बादर पर्याप्त प्रत्येक स्थिर शुभानि सुभगं च।
सुस्वरमादेय यशोनाम्नी चेत्याधदशकं स्यात् १७२॥
त्रस आदि दस इस तरह हैं- त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश । (१७२)