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________________ (५४५) यह आयुकर्म प्राणी के लिए बेड़ी के समान है क्योंकि इसे पूर्ण किए बिना प्राणी कभी भी अन्य गति में नहीं जा सकता है । (१५६) गूयते शब्द्यते शब्दैर्यस्मादुच्चावचैर्जनः । . तत् गोत्रकर्मस्यादेतत् द्विधोच्चनीच भेदतः ॥१६०॥ छठा गोत्र कर्म है । जिसके कारण लोक में मनुष्य को बड़े नाम से या हलके नाम से बोला जाता है वह गोत्र कर्म कहलाता है । उसके उच्च गोत्र और नीच गोत्र दो प्रकार के होते हैं । (१६०) इदं कुलाल तुल्यं स्यात् कुलालो हि तथा सृजेत् । किंचित् कुम्भादि भाण्डं तत् यथा लोकैः प्रशस्यते ॥१६१॥ किंचिच्च कुत्सिताकारं तथा कुर्यादसौ यथा । - अक्षिप्त मद्याद्यपि तत् भाण्डं लोकेन निन्द्यते ॥१६२॥ और यह कुम्हार के बर्तन के समान है । कुम्हार कोई ऐसा बर्तन बनाता है कि जिससे इसकी लोगों में प्रशंसा होती है और कोई ऐसा बनाया हो कि वह मद्यवाला न हो फिर भी लोक में उसकी निन्दा होती है। वैसे ही लोक में उच्च गोत्र की प्रशंसा करते हैं और जो नीच. गोत्र वाला हो उसकी निंदा करते हैं । (१६१-१६२) कर्मणापि तथानेन धनरूपोज्झितोऽपि हि । . . उच्चैगोत्रतया कश्चित प्रशस्यः क्रियतेऽसुमान् ॥१६३॥ 'कश्चिच्च नीचैर्गोत्रत्वात् धनरूपादि मानपि । क्रियते कर्मणानेन निन्द्यो नन्दनृपादिवत् ॥१६४॥ कोई मनुष्य धन रूप हीन होने पर भी लोगों में प्रशंसा प्राप्त करता है वह उसके उच्च गोत्र कर्म के कारण ही होता है। और किसी की धनवान रूपवान होने पर भी नंद नृपति के समान लोक में निंदा होती है यह इसके नीच गोत्र कर्म का ही फल है । (१६३-१६४) . .. गति जात्यादि पर्यायानुभवं प्रतिदेहिनः । नामयति प्रह्वयति यत्तन्नामेति कीर्तितम् ॥१६५॥ सातवां नाम कर्म है । प्रत्येक प्राणी की गति, जाति आदि पर्याय के अनुभव को कहने वाला जो कर्म है वह नाम कर्म कहलाता है । (१६५)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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